Thursday, November 27, 2008

शोक/आक्रोश


य़ह आक्रोश, विरोध और दुख का चित्र है। कल/आज की मुंबई की और पिछली तमाम ऐसी घटनाओं के खिलाफ। इस चित्र को अपने ब्लॉग पोस्ट मे भी डालें और साथ दें । इस एक दिन हम सब हिन्दी ब्लॉग पर अपना सम्मिलित आक्रोश व्यक्त करें।

Friday, November 7, 2008

इन्हें ज़रा सांस तो लेने दो!

आज हमारे देश में राष्ट्रीय कैंसर जागरूकता दिवस मनाया जा रहा है। इस मौके पर ये दोहराना सही होगा कि देश में पुरुषों के कैंसर के मामलों में 45 फीसदी मुंह, श्वास नली या फेफड़ों का कैंसर होता है और इनमें 95 फीसदी का कारण तंबाकू और धूम्रपान है। सरकार ने इस साल मई में धूम्रपान पर रोक लगाने के लिए कड़े नियम लागू कर दिए हैं, जिनका पालन, जाहिर है, आम तौर पर नहीं ही होता है।

कुछ तो सांस लीजिए, सिगरेट पीना बंद कीजिए।

यू-ट्यूब पर फेफड़ों को बचाने की धूम्रपान-विरोधी मुहिम का रियलिस्टिक वीडियो।-

Friday, October 31, 2008

जो पहले ज़ख्म था, नासूर बन गया

इन पृष्ठों पर कैंसर के रिस्क फैक्टर्स यानी कैंसर की संभावना बढ़ाने वाले कारकों के बारे में चर्चा हुई है। लेकिन कैंसर का एक और रिस्क फैक्टर है जिसके बारे में हम लोकोक्तियों/कहावतों में तो कई बार कहते हैं लेकिन उसे भाषा की सुंदरता बढ़ाने वाले अलंकार से ज्यादा नहीं समझते। दिल के किसी पुरानी चोट/दर्द के ठीक होने की सूरत नहीं नज़र आती तो हम अक्सर कहते हैं कि जो पहले ज़ख्म था, अब नासूर बन गया है। नासूर यानी कैंसर। लंबे समय का दिल का जख्म या दुख जब ठीक नहीं होता तो सिर्फ दिल में नहीं शरीर में भी नासूर बना सकता है।

इज़राइल में रिसर्चरों की एक टीम ने 255 स्तन कैंसर की मरीज़ों और 367 स्वस्थ महिलाओं के जीवन में बीमारी शुरू होने के पहले खुशी, आशावादिता, तनाव, अवसाद जैसी स्थितियों के आंकड़े जुटाए। डाक्टरों ने पाया कि जिन महिलाओं के जीवन में एक या एक से ज्यादा बड़े दुख की घटनाएं हुईं उन्हें कैंसर की संभावना ज्यादा थी। जबकि आम तौर पर सामान्य, खुशमिजाज़, आशावादी रहने वाली महिलाओं को स्तन कैंसर कम हुआ।

उनका कहना है कि केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (सेंट्रल नर्वस सिस्टम), हार्मोन और रोग प्रतिरक्षा तंत्र आपस में संबंधित हैं और व्यक्ति का व्यवहार और बाहरी कारक इनकी कार्यक्षमता पर असर डालते हैं।

तो, हम बाकी सकारात्मक कोशिशों के साथ साथ- खुश रहने और कैंसर दूर भगाने के इस मंत्र को भी याद रखें ।

Wednesday, October 29, 2008

गुलाबी रिबन में पुरुष अजीब नहीं लगते

गुलाबी रिबन के बारे में पिछली पोस्ट क्या आपने आज कुछ गुलाबी पहना है? पर एक टिप्पणी थी – ‘गुलाबी रंग में पुरुष - शायद कुछ अजीब लगे।‘ उसके जवाब में अपने ई-मेल बॉक्स पर मिली यह दिलचस्प और सार्थक कहानी आपके साथ बांट रही हूं।

एक अधेड़ उम्र का सुदर्शन पुरुष कैफे में पहुंचा और शांति से कोने की एक टेबल पर बैठ गया। कुछ देर में उसका ध्यान बगल वाली टेबल पर बैठे कुछ नौजवानों की तरफ गया जो उसे ही देख कर हंस रहे थे। फिर अचानक उसे कुछ ख्याल आया और वह समझ गया कि वे क्यों हंस रहे हैं। उसे याद आया कि उसने कोट के कॉलर वह गुलाबी रिबन टांका था, जिसे देख कर वे नौजवान उसका मज़ाक उड़ा रहे थे।

थोड़ी देर तो वह उनकी ठिठोली को नज़रअंदाज़ करता रहा। फिर रिबन पर अंगुली रखी और उनमें से सबसे उच्श्रृंखल लगने वाले लड़के की तरफ देख कर पूछा- “क्या इस पर हंस रहे हो?”

वह लड़का बोला,- “माफ करें, लेकिन नीले कोट पर यह गुलाबी रिबन बिल्कुल नहीं जंच रहा है।“

उस अधेड़ ने उसे इशारे से बुलाया और पास बैठने का न्यौता दिया। नौजवान असहज होकर उसके पास वाली कुर्सी पर बैठ गया। उस अधेड़ ने धीमी आवाज़ में कहा- “मैं स्तन कैंसर के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए, अपनी मां के सम्मान में इसे पहनता हूं।”

“मुझे अफसोस है। क्या स्तन कैंसर ने उनकी जान ले ली थी?”

“नहीं, वह मरी नहीं हैं। लेकिन शैशवकाल में उनके स्तनों से मेरा पोषण हुआ, और लड़कपन में जब भी मैं डर या अकेलापन महसूस करता था तो अपना सिर उन पर रख कर आश्वस्त हो जाता था। मैं उनका शुक्रगुज़ार हूं।”

“अच्छा!।”

“मैं यह रिबन अपनी पत्नी के सम्मान में भी पहनता हूं।”

“उम्मीद है, अब वे भी ठीक हो गई होंगी?”

“हां, उन स्तनों ने 23 साल पहले मेरी प्यारी सी बेटी को पोषित किया, दिलासा दिया। वे हमारे स्नेहिल संबंधों में खुशी का स्रोत रहे हैं। मैं उनका भी आभारी हूं।”

“और आप इसे अपनी बेटी के सम्मान में भी पहनते होंगे?” नौजवान ने उकता कर कहा।

“नहीं। उसके सम्मान में इसे पहनने के लिए बहुत देर हो चुकी है। मेरी बेटी एक माह पहले स्तन कैंसर से मर गई। उसका ख्याल था कि इस कम उम्र में उसे स्तन कैंसर नहीं हो सकता। इसलिए जब एक दिन अचानक उसने गांठ महसूस की तो भी वह चैतन्य नहीं हुई, उसे नज़रअंदाज़ करती रही। उसे लगा कि चूंकि उसे दर्द नहीं होता है, उसलिए चिंता की कोई बात नहीं है।”

इस कहानी से विचलित नौजवान बरबस बोल उठा- “ओह, मुझे बहुत दुख हुआ जानकर।“

अधेड़ बोला- “अब मैं अपनी बेटी की याद में गर्व से यह रिबन लगाता हूं। यह मुझे, दूसरों को इस बारे में सतर्क और जागरूक करने में मदद करता है। अब घर जाकर अपनी पत्नी, मां, बेटी, रिश्तेदारों और मित्रों को इस बारे में बताना।

और यह लो ”- कहते हुए उस अधेड़ ने अपनी कोट की जेब से एक गुलाबी रिबन निकाल कर उसे थमा दिया।

Saturday, October 25, 2008

क्या आपने आज कुछ गुलाबी पहना है?

क्या आपने आज कुछ गुलाबी पहना है? गुलाबी कपड़े, जूते, मोज़े, कड़े, रुमाल, रिबन... कुछ भी। अगर नहीं तो मेरी गुज़ारिश है कि जरूर पहनें। यह स्तन कैंसर का प्रतीक रंग है। आज का दिन गुलाबी पहनने के लिए खास इसलिए है कि, कहते हैं न, जब जागे, तभी सवेरा। जागरूकता के लिए तो कोई भी दिन अच्छा है। आप सोच रहे हैं, कि एक दिन एक खास रंग पहनने से क्या हो जाएगा! तो जनाब, इस लेख को पूरा पढ़ जाइए, आपको जवाब मिल जाएगा।

अक्टूबर का महीना स्तन कैंसर जागरूकता को समर्पित है। अक्टूबर को नैशनल ब्रेस्ट कैंसर अवेयरनेस मंथ के रूप में मनाने की शुरुआत अमरीका में हुई। अब इसे कई देशों ने अपना लिया है।

गुलाबी रंगत में व्हाइट हाउस, अक्टूबर 2008





पिंक रिबन का इतिहास

स्तन कैंसर की मरीज सूज़न जी. कोमेन को मौत के करीब पहुंची हालत में देखकर बहन नैंसी जी. ब्रिकनर ने उससे वादा किया कि वह इस बीमारी के बारे में जागरुकता फैलाने की हर कोशिश करेगी। इसी वादे को निभाने के लिए 1982 में ‘सूज़न जी. कोमेन फॉर क्योर’ नाम की संस्था बनी। इसके जरिए नैंसी ने स्तन कैंसर के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। आज यह स्तन कैंसर के मरीजों, विजेताओं और कार्यकर्ताओं का संभवतः दुनिया का सबसे बड़ा नेटवर्क है।

अक्टूबर 2007- स्तन कैंसर जागरूकता माह, गुलाबी रोशनी में नहाया टोकियो टावर

1991 में इस संस्था ने न्यूयॉर्क में आयोजित कैंसर जागरूकता दौड़ में सहभागियों को प्रतीक के रूप में गुलाबी रिबन बांटे। तब से गुलाबी रिबन दुनिया भर में स्तन कैंसर का प्रतीक चिन्ह बन गया है।




गुलाबी रंगत

सामाजिक संस्थाओं को जोड़ने वाली कड़ी के रूप में गुलाबी रिबन कामयाब रहा है। इसके नाम पर ‘पिंक रिबन इंटरैशनल’ जैसी संस्थाएं और ‘वियर इट पिंक’ और ‘इन द पिंक’ जैसी स्तन कैंसर से जुड़ी परियोजनाएँ खासा बड़ा काम समाज के लिए कर रही हैं। गुलाबी रिबन के अलावा इस रंग के दूसरे उत्पाद भी इस कैंसर जागरूकता माह में खूब बेचे और खरीदे जाते हैं और इससे तथा दान में मिले धन का इस्तेमाल स्तन कैंसर जागरूकता, इलाज और अनुसंधान के लिए किया जाता है।

स्तन कैंसर पर सार्वजनिक आयोजनों के अलावा एक दिन तय किया जाता है जब संस्था से जुड़े सभी लोग और यहां तक कि उसे प्रायोजित करने वाली कंपनियों के कर्मचारी भी गुलाबी पहनते हैं। इसे ‘पिंक डे’ कहा जाता है।

'पिंक फॉर अक्टोबर' पिंक फॉर अक्टोबर का लोगो

एक और अभियान है जिसके तहत स्तन कैंसर जागरूकता अभियान का समर्थन करने वाले सभी वेबसाइट इस महीने अपने पृष्ठों पर गुलाबी रंग बिखेर देते हैं। (आप भी बिखेर सकते हैं)

अक्टूबर 2006 में मैथ्यू ओलीफैंट का मज़ाक-मज़ाक में बनाया गुलाबी रंग से भरा मज़ाहिया वेबसाइट कैसे स्तन कैंसर जागरूकता अभियान के लिए प्रेरणा बन गया, यह कहानी भी दिलचस्प है।

कैंसर की दवाएं बनाने वाली कंपनियों ने भी आदतन इस चिन्ह को व्यावसायिक फायदे के लिए खूब इस्तेमाल किया है। दरअसल शुरू में गुलाबी रिबन को बड़े पैमाने पर प्रायोजित करने वाली संस्था खुद एक रसायन कंपनी थी, जिसके उत्पाद स्तन कैंसर को बढ़ावा देते हैं। इसी तरह की परिघटनाओं के लिए ‘पिंकवाशिंग’ शब्द निकला है। यानी अपने बुरे कर्मों (ज़हरीले रसायनों का उत्पादन) की कालिख को (कैंसर के उपचार, जागरूकता आदि अभियानों के लिए खुले आम धन दे कर) धोने की कोशिश।

इन आलोचनाओं से परे सोचने की बात यह है कि स्तन और दूसरे कैंसरों के बारे में जानने की जरूरत लगातार बढ़ रही है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि देश में आज की तारीख में कोई 20-25 लाख कैंसर के मरीज हैं। हर साल सात लाख से ज्यादा नए मरीज इस लिस्ट में जुड़ रहे हैं और इनमें से तीन लाख हर साल दम तोड़ देते हैं।

स्तन कैंसर की बात करें तो हर साल शहरों में हर 8-10 महिलाओं में से एक को और गांवों में हर 35-40 में एक को स्तन कैंसर होने की संभावना है।


क्या अब तक आप समझ पाए कि मैंने आज के दिन आपसे गुलाबी पहनने की गुज़ारिश क्यों की? जवाब बहुत सरल है। जब आप गुलाबी पहनेंगे तो इस बारे में सोचेंगे भी, क्योंकि आपका गुलाबी पहनना स्वतःस्फूर्त नहीं है, बल्कि ऐसा करने को आपसे कहा गया है। और उसी सोच के दौरान यह भी जानने को उत्सुक होंगे कि आखिर गुलाबी रंग और स्तन कैंसर का क्या रिश्ता है। और इस प्रक्रिया में आप कैंसर के बारे में कुछ नया जानें या नहीं, पर यह आपकी विचार-प्रक्रिया में शामिल जरूर हुआ। है न! बस, इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। स्तन कैंसर के प्रति जागरूकता अभियान में शामिल होने के लिए शुक्रिया।

Wednesday, October 22, 2008

तानाशाह हिटलर के शुक्रगुज़ार हैं कैंसर के मरीज़

जर्मनी के नाज़ी तानाशाह हिटलर की कैंसर के मरीजों को एक बड़ी देन है। हालांकि वे चले थे बुराई करने, अनेकों के साथ बुरा तो हुआ पर कुछेक का भला भी हो गया। नहीं, ज्यादा पहेलियां बुझाने का मेरा कोई इरादा नहीं है, बस एक कहानी सुनानी है। तो, हिटलर ने यहूदियों को मारने के लिए कई तरीके ईजाद किए। सैकड़ों को एक साथ मारने का उसका एक तरीका था- गैस चेंबर। झुंड-के-झुंड यहूदियों को बड़े-से हॉल में बंद कर देना और उसमें जहरीली गैस छोड़ना, जिसे सूंघ कर सबका काम तमाम हो जाए।

कुछेक बार ऐसा हुआ कि गैस-चेंबरों की जहरीली गैस सूंघने के बाद भी कुछ लोग जिंदा रह पाए और जान बचाकर निकल भागे। उन भागने वालों में कुछ कैंसर के मरीज भी थे। देखा गया कि गैस चेंबर से बचे कैंसर के मरीजों की हालत में अचानक चमत्कारी सुधार होने लगा। बाद में पता लगा कि उन जहरीली गैंसों से उनके शरीर की कैंसर कोशिकाएं नष्ट हो गईं। और इस तरह खोज हुई कैंसर को मारने वाले जहरीले रसायनों की। इन मारक रसायनों का इस्तेमाल कैंसर के मरीजों की जान बचाने के लिए होने लगा।


Auschwitz gas chamber









Aftermath



Inside a gas chamber


ये रसायन यानी कीमोथेरेपी की दवाएं जहरीली तो अब भी उतनी ही हैं, लेकिन अब यह भी पता लग गया है कि सबसे अच्छे परिणाम पाने के लिए वे कितनी मात्रा में और कैसे दी जाएं और उनके बुरे असर कम करने के लिए क्या-क्या किया या न किया जाए।

इस तरह की अब तक सैकड़ों दवाएं खोजी जा चुकी हैं। इनमें से कुछ दवाएं दूसरी एक या दो दवाओं के साथ दिए जाने पर कैंसर के खिलाफ ज्यादा कारगर साबित होती हैं। कीमोथेरेपी की इस पद्यति को कॉम्बिनेशन कीमोथेरेपी कहते हैं।

इन दवाओं का चुनाव कैंसर के प्रकार अवस्था और शरीर के अंग के आधार पर (और हां, हिंदुस्तान में खास तौर पर सरकारी अस्पतालों में पहुंचे गरीब मरीजों के लिए उनकी माली हालत के आधार पर!) किया जाता है। इन्हें मरीज के रक्त-संचार तंत्र में डाला जाता है जहां से यह रक्त नलियों के जरिए पूरे शरीर में फैल जाती हैं।

Sunday, October 19, 2008

थुल-थुल मोटापे से तौबा!

जिराफ कभी मोटा नहीं होता।इसीलिए अव्वल तो उसे कैंसर होता नहीं। और खुदा-न-खास्ता कभी हो भी गया तो उसके बचने के चांसेस काफी मोटे होंगे क्योंकि वह खुद मोटा नहीं होता।

मोटे और थुल-थुल शरीर वाले कैंसर मरीजों की ठीक होने की संभावना कम होती है। यह ताजा नतीजा हाल के एक रिसर्च के बाद सामने आया है। लान्सेट ऑन्कोलॉजी पत्रिका में छपे लेख के मुताबिक वैज्ञानिकों ने पाया कि मोटे लेकिन कमज़ोर मांस-पेशियों वाले लोगों में इलाज के लिए दी जाने वाली कीमोथेरेपी का वितरण पूरे शरीर में आसानी से नहीं हो पाता। इस कारण दवाओं का पूरा फायदा शरीर को नहीं मिल पाता।

मोटे लोगों में भी उपापचय की दर, पेशियों और मांस का अनुपात शरीर के गठन के मुताबिक अलग-अलग होता है। इसलिए उनको दी गई समान कीमोथेरेपी का पूरे शरीर में वितरण और असर होने का समय अलग-अलग हो सकता है। इसलिए इलाज के दौरान शरीर की सक्रियता, खान-पान और मोटापे का असर इलाज के कुल फायदे पर भी पड़ता है।

कनाडा में हुए एक क्लीनिकल ट्रायल में कैंसर के कमजोर मांस-पेशियों वाले मोटे मरीजों (सार्कोपीनिक ओबीज़) पर दवाओं के असर और उनकी ठीक होने की संभावना का अध्ययन किया गया। इसमें 250 मोटे मरीजों को शामिल किया गया , जिनमें से 38 फीसदी सार्कोपीनिक ओबीज़ माने गये।

इस अध्ययन के कुछ नतीजे थे-
• सार्कोपीनिक ओबेसिटी वाले मरीज़ों की मृत्यु दर दूसरे ओबीज़ मरीजों के मुकाबले चार गुना ज्यादा थी।

• सार्कोपीनिक ओबीज़ मरीजों की सक्रियता यानी अपना रोज़ का काम करने और अपनी देखभाल कर पाने की क्षमता दूसरे मोटे मरीजों के मुकाबले बहुत कम थी।

• शरीर में कीमोथेरेपी के असमान वितरण के कारण सार्कोपीनिक ओबीज़ में कीमो के साइड इफेक्ट पर भी नकारात्मक असर पड़ा।

वैज्ञानिकों ने निश्कर्ष निकाला कि शरीर की रचना और गठन, खास तौरपर सार्कोपीनिक ओबेसिटी का मरीज़ की उत्तरजीविता, सामान्य जीवन, कीमोथेरेपी के जहरीले बुरे असर आदि से गहरा संबंध है। यह भी पाया गया कि ऐसे मरीजों में समान शारीरिक वजन और ऊंचाई के बावजूद उपयुक्त दवा की मात्रा में तीन-गुने तक का अंतर आ सकता है।

इस ट्रायल पर ज्यादा अध्ययन के बाद हो सकता है भविष्य में सार्कोपीनिक ओबेसिटी से पीड़ित कैंसर मरीजों के लिए दवा की मात्रा तय करते समय इन कारकों को भी गिनती में लिया जाए।

कुल मिला कर सबक यही है कि हर कीमत पर मोटापे से बचा जाए, चाहे हम सार्कोपीनिक ओबीज़ हों या नहीं, चाहे हम कैंसर के मरीज़ हों या नहीं।

Thursday, October 16, 2008

खून की सरल जांच कैंसर होने का पता देगी

खून की जांच कराई और पता लगा लिया कि शरीर के किसी हिस्से में कैंसर की शुरुआत तो नहीं हो रही! आज की तारीख में सभी तरह के कैंसरों के लिए तो नहीं पर कुछेक के लिए यह जांच सुविधा उपलब्ध है। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि जल्दी ही बाकी तरह के कैंसर में भी ऐसी ही सरल जांच से काम बन जाएगा। कैंसर जैसी जटिल बीमारी के बारे में यह सोच पाना कठिन है कि सबसे सरल तरीका सबसे प्रभावी भी हो सकता है। कैंसर की पहचान के लिए ढेरों बड़ी-बड़ी महंगी मशीनें और दुरूह जांच हैं जो कुछेक गिने-चुने शहरों और अस्पतालों में ही उपलब्ध हैं। ऐसे में अमेरिकन सोसाइटी ऑफ क्लीनिकल ऑन्कोलॉजी के शिकागो में हुए हालिया सम्मेलन में रिसर्चरों ने राय जाहिर की है कि कैंसर का पता लगाने का सबसे अच्छा तरीका हैं, खून की कुछेक बूंदें लेकर जांच करना।

खून से कैंसर का हाल जानने की तकनीक नई नहीं है। जिस तरह किसी महिला के खून में मौजूद प्रोटीनों की जांच करके उसके 10 दिन का गर्भ होने का पता भी लगाया जा सकता है, उसी तरह कैंसर की बेहद शुरुआती अवस्था में खून की जांच से ट्यूमर द्वारा छोड़ी गई कोशिकाओं पर मौजूद कुछ खास प्रोटीन की जांच करके उसकी मौजूदगी का पता लगाया जा सकता है। ज्यादातर ट्यूमर पास-पास जुड़ी हुई कई परतों वाली ऐपीथीलियल कोशिकाओं से बने होते हैं। कैंसर कोशिकाओं की खास बात यह है कि वे एक जगह टिकती नहीं है और ट्यूमर से छिटक-छिटक कर तेजी से खून के जरिए दूसरी जगहों पर फैलने की कोशिश करती हैं। एक और दिलचस्प बात यह है कि कैंसर कोशिकाएं अविकसित, अधूरी, कमजोर और तेजी से विभाजित होने और उसी तेजी से मरते जाने वाली कोशिकाएं हैं। ऐसे में किसी जगह ट्यूमर बनने के पहले ही उससे निकल कर खून में आई ये अलग तरह की ऐपीथीलियल कोशिकाएं तुरंत पहचानी जा सकती हैं।

खून की जांच से कैंसर होने का पता देने वाली उसमें घूम रही अविकसित ऐपीथीलियल कोशिकाओं की मौजूदगी का पता लगा लेना काफी नहीं है। वैसे ही जैसे किसी जगह दुश्मन के सैनिकों की मौजूदगी का पता लगाना काफी नहीं। अगर उन्हें पकड़ कर पूछताछ भी की जा सके, उनके इरादों, योजनाओँ का भी खुलासा हो पाए तो बात बने। इसलिए नए तरह के परीक्षणों से वैज्ञानिक अब उन कोशिकाओं पर मौजूद प्रोटीन के प्रकार की पहचान करके यह भी पता लगा पा रहे है कि वह जिस ट्यूमर से निकल रहा है उसकी प्रकृति क्या है। क्या वह तेजी से बढ़ने वाला है, किसी और अंग में फैलने की स्टेज पर है, या धीरे-धीरे बढ़ रहा अपनी ही जगह पर बना हुआ है। इससे डॉक्टरों को हर मरीज की जरूरत के मुताबिक सही समय पर सही इलाज करने में मदद मिलेगी। ऐसी तरकीब इसलिए और भी जरूरी है कि कैंसर के सामान्य इलाज के जहरीले साइड इफेक्ट बहुत ज्यादा और मारक हैं। ऐसे में इलाज जितना सटीक होगा उतना ही कारगर, सस्ता, सुगम और कम साइड इफेक्ट पैदा करने वाला होगा।

ये जानना रोचक है कि अब ट्यूमर से निकली कोशिकाओं के डीएनए, आरएनए और प्रोटीन में मौजूद बदलावों की जांच करके ट्यूमर के भीतर की खबर लेना आसान हो गया है। इन जांचों की सबसे बड़ी खासियत है इनका आसान और सहज होना। आजकल सबसे आम जांच चलन में है फाइन नीडिल एस्पिरेशन साइटोलॉजी तकनीक या एफ एन ए सी। सरल शब्दों में कहें तो ट्यूमर की जगह से कुछ कोशिकाएँ सुई के जरिए खींच कर निकालना और फिर माइक्रोस्कोप के नीचे उनकी पड़ताल करके उनके आकार-प्रकार, रचना, संख्या आदि का पता लगाना। लेकिन यह जांच तभी की जा सकती है जबकि पहले ही कैंसर का अंदेशा हो, ट्यूमर की जगह का पता हो, वह कम-से-कम इतना बड़ा हो कि उसमें से कोशिकाएं सुई के जरिए निकाली जा सकें और सुई उस तक पहुंच सके। इस प्रक्रिया में एक खतरा कैंसर कोशिकाओं के जल्द फैलने का भी है। ट्यूमर के भीतर तक पहुंची सुई के सहारे कैंसर कोशिकाएं अब तक अनछुई परतों तक पहुंच कर आदतन वहां भी पैर जमाना शुरू कर सकती हैं। लेकिन रक्त निकालकर जांच करने में इस बात का कोई खतरा नहीं होता।

खून की जांच पर आधारित इन निदान तकनीकों से कैंसर की पहचान में कोई बड़ा बदलाव आ गया हो, ऐसा समझना अभी जल्दबाजी होगी। लेकिन डॉक्टरों को इनसे बहुत उम्मीदें हैं। कैंसर के बारे में बुनियादी बात यही है कि इसकी पहचान जितनी जल्दी होती है, इसका इलाज उतना ही सरल, कम खर्चीला और सफल होता है और इसके दोबारा होने की संभावना उतनी ही कम होती है। इसलिए इन तकनीकों के ज्यादा सटीक और भरोसेमंद बनाने की कोशिशें जारी हैं।

Saturday, October 4, 2008

धूम्रपान पर कड़ी पाबंदी

दो अक्टूबर से सभी सार्वजनिक जगहों पर धूम्रपान पर पाबंदी लग गई है। इसे न मानने पर सज़ा का भी प्रावधान है। यह सभी की सेहत के लिए अच्छा है। खास बात यह है कि कई सर्वेक्षणों में लोगों ने समान रूप से इस पाबंदी का समर्थन किया है।
इस मसले पर घोस्ट बस्टर ने अपने ब्लॉग पर एक शानदार पोस्ट डाली है। उसके सुंदर चित्र, प्रवाहमय भाषा, खूबसूरत अभिव्यक्ति और रिच कंटेंट पढ़ कर मैं आपको भी उससे परिचित करवाने के लालच से बच नहीं पाई।

वे लिखते हैं- "आम जनता की और से सरकार के इस कदम का जबरदस्त स्वागत हुआ है. मुंबई, दिल्ली, चेन्नई और कोलकाता में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार ९२% लोगों ने धूम्रपान निषेध के लिए कड़े क़दमों का स्वागत किया है

फ़िर भी इस बात को लेकर एक बड़ी बहस छिडी हुई है. बैन के पक्षधर और विरोधी तमाम तरह के तर्क दे देकर मैसेज बॉक्स और फोरम्स के पन्नों पर पन्ने रंगे जा रहे हैं. अपन तो बस इस बैन को जल्द से जल्द और सख्ती से लागू किए जाते देखना चाहते हैं. एक कम्युनिटी के रूप में स्मोकर्स के लिए अपने मन में जरा भी इज्जत नहीं. क्योंकि,

१. ये जानते हैं कि धूम्रपान इनके स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक है. मगर इन्हें परवाह नहीं.
२. इन्हें पता है कि ये इनके घर के अन्य सदस्यों, जो स्मोक नहीं भी करते, के लिए भी बुरा है, मगर ये आदत से मजबूर हैं.
३. स्मोकिंग से होने वाली विषैली गैसों का उत्पादन पूरे विश्व के पर्यावरण के लिए नुक्सान ही पहुँचाने वाला है, होता रहे इनकी बला से.
४. सार्वजनिक स्थानों पर किसी स्मोकर को धुंआ उडाते देखने का दृश्य अभद्रता का खुला प्रदर्शन लगता है...."

पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

Friday, October 3, 2008

चहुंओर रंग बिखेरता इंद्रधनुष

पिछले दिनों वेबदुनिया में अपने इस ब्लॊग पर एक लेख आया तो मैं बहुत उत्साहित हो गई। उसी उत्साह के नतीजे में नेट पर और जगहों पर तलाश की तो पता चला हम कई और जगहों पर भी समीक्षित हैं। तो उनमें से कुछ के बारे में लिंक सहित नीचे दे रही हूं।

THATS HINDIरविवार, मई 11, 2008

कैंसर को समर्पित ब्लॉग 'इंद्रधनुष'
रविवार, मई 11, 2008

नई दिल्ली, 11 मई (आईएएनएस)। हिंदी ब्लॉग की दुनिया में साहित्य, सिनेमा, राजनीति, संगीत आदि पर तो कई ब्लॉग मौजूद हैं और सक्रिय रूप से काम भी कर रहे हैं, लेकिन स्वास्थ्य संबंधी जानकारियों को समेटे ब्लॉग की संख्या काफी कम है। हाल ही में हिंदी ब्लॉग जगत में कैंसर के बारे में जागरूकता फैलाने के उदेश्य से 'इंद्रधनुष' नामक ब्लॉग का प्रवेश हुआ है।
नई दिल्ली, 11 मई (आईएएनएस)। हिंदी ब्लॉग की दुनिया में साहित्य, सिनेमा, राजनीति, संगीत आदि पर तो कई ब्लॉग मौजूद हैं और सक्रिय रूप से काम भी कर रहे हैं, लेकिन स्वास्थ्य संबंधी जानकारियों को समेटे ब्लॉग की संख्या काफी कम है। हाल ही में हिंदी ब्लॉग जगत में कैंसर के बारे में जागरूकता फैलाने के उदेश्य से 'इंद्रधनुष' नामक ब्लॉग का प्रवेश हुआ है।
यह ब्लॉग कई मायनों में अन्य ब्लॉगों से अलग है। कैंसर से जुड़ी जानकारियों से लेकर इससे जुड़ी गलत अवधारणाओं के बारे में भी यहां जानकारियां दी जा रही हैं। जहां ब्लॉग का नाम 'इंद्रधनुष' रखा गया है, वहीं इसका परिचय इस प्रकार दिया गया है- "यह ब्लॉग उन सबका है जिनकी जिंदगियों या दिलों के किसी न किसी कोने को कैंसर ने छुआ है।"...

हिंदी मीडिया.इन

कैंसर ने जीने की राह दिखाई



ब्लॉग समीक्षा | रंजना भाटिया | Monday, 21 July 2008

आज हिन्दी ब्लॉग समीक्षा की श्रृंखला में प्रस्तुत है इंद्रधनुष , इस ब्लॉग की लेखिका है आर अनुराधा, जिन्होंने कैंसर जैसी बीमारी पर जीत हासिल की है।

आज जितना हवा में प्रदूषण फ़ैल रहा है, उतनी ही तेजी से बीमारी फ़ैल रही है| कैंसर का इलाज यदि वक्त रहते हो जाए तो यह अच्छा है | बहुत अच्छी बात जो इस ब्लॉग को पढने में आती है वह है इसकी सकरात्मक सोच | जब कोई व्यक्ति जिंदगी से हार रहा हो उस वक्त यदि इस तरह की सोच उस व्यक्ति के दिल में कुछ पढ़ कर सुन कर पैदा हो जाए तो सब लिखना सार्थक हो जाता है | इस ब्लॉग में लिखे कुछ वाक्य तो जिंदगी के प्रति नजरिया ही बदल देते हैं और दिल में जीने का उत्साह भर देते हैं | नई दवाओं और इलाज के तरीकों ने सारे माहौल और लोगों के सोचने का ढंग ही बदल दिया है। अस्पतालों में ऐसे कई कैंसर के मरीज आपको मिल जाएंगे जो पिछले 24-25 साल से तमाम आशंकाओं को नकारते हुए अपना सफर ज़िंदादिली के साथ तय कर रहे हैं। काफी संभव है कि जब मृत्यु आए तो उसकी वजह कैंसर न हो। ...

रिजेक्ट माल
जो कहीं नहीं छ्पा वो यहाँ छपेगा ... सूचना और रचना के लोकतंत्र में आप सबका स्वागत है। अपना रिजेक्ट माल या ऐसा माल जो आपको लगता है कि रिजेक्ट हो जाएगा, उसे rejectmaal@gmail.com पर भेजें

Tuesday, July 8, 2008
मुमकिन है कैंसर के साथ जीना ! कैंसर का खौफ अब पहले से कम हो रहा है। कैंसर के बावजूद अब कई लोग उसी तरह लंबी जिंदगी जी रहे हैं जैसे कि हार्ट की बीमारी या डायबिटीज के मरीज जीते हैं। बीमारी का इलाज न हो तो भी उसका मैनेजमेंट कई बार मुमकिन हो पाता है। कैंसर का मतलब जीवन का अंत नहीं है, इस बात को रेखांकित करता एक लेख आज नवभारत टाइम्स के संपादकीय पन्ने पर मुख्य लेख के रूप में छपा है। ये लेख आर अनुराधा ने लिखा है, जिनकी राजकमल-राधाकृष्ण से छपी किताब इंद्रधनुष के पीछे -पीछे, एक कैंसर विजेता की डायरी बेस्टसेलर रही है। अनुराधा के ब्लॉग का नाम है इंद्रधनुष। ...


ताक-झांक
ने भी मेरा एक लेख 'नारी' ब्लॊग से लिया है।

जोश18सितम्बर 2008


">जीवन शैली » वाह जिंदगी!
एक ब्लॉग, कैंसर के नाम!
12 मई 2008
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस

नई दिल्ली। हिंदी ब्लॉग की दुनिया में साहित्य, सिनेमा, राजनीति, संगीत आदि पर तो कई ब्लॉग मौजूद हैं और सक्रिय रूप से काम भी कर रहे हैं, लेकिन स्वास्थ्य संबंधी जानकारियों को समेटे ब्लॉग की संख्या काफी कम है। हाल ही में हिंदी ब्लॉग जगत में कैंसर के बारे में जागरूकता फैलाने के उदेश्य से ‘इंद्रधनुष’ नामक ब्लॉग का प्रवेश हुआ है।....


अनुभव
मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ।
May 12, 2008
कैंसर को समर्पित ब्लॉग 'इंद्रधनुष'
POSTED BY गिरीन्द्र नाथ झा AT MONDAY, MAY 12, 2008
LABELS: ब्लॉग की बातें

Sunday, September 28, 2008

बेटियों के दिन पर उनके लिए खास: कैंसर विजेता की डायरी के पन्ने

आज बेटियों के अपने दिन अपनी आत्मकथात्मक पुस्तक ‘इंद्रधनुष के पीछे-पीछे: एक कैंसर विजेता की डायरी’ के कुछ संबंधित हिस्से उनके और सबके साथ बांट रही हूं।

मैंने अपने को हमेशा एक वंचित बेटी समझा है जिसे पदार्थ के रूप में तो समृद्धि हमेशा मिली लेकिन भावनात्मक संतुष्टि की तलाश में परिवार के बाहर सहृदय लोगों का मुंह देखना पड़ा। इसमें मां की गलती नहीं है कि वे मुझे उम्र के उस बदलावों भरे तूफानी दौर में दिलासा नहीं दे पाईं, जिसकी मुझे सख्त जरूरत थी। दरअसल मां ने भी जो सीखा था, वही व्यवहार मेरे साथ किया। लेकिन आज की मांएं यह बेहतर समझती हैं कि अपनी बेटी को उस कठिन समय में संभालना, जानकारी देना, मजबूती देना और भरोसा दिलाना हर मां के लिए एक बड़ी जिम्मेदारी होती है।

तो ये रहे पुस्तक के पृष्ठ 56-57-58 से कुछ हिस्से:

“मन के कोने में एक बात छुपी हुई है जिसे संकोच के परदे हटा कर बाहर लाने की पूरी कोशिश करती हूं- इस बात को कहने का यह, शायद जीवन का एकमात्र, मौका मैं खोना नहीं चाहती। मैं नहीं जानती, ऐसा कुछ मेरे जमाने में हर किशोर होती लड़की को सहना पड़ा होगा या नहीं। लेकिन मेरे दिलो-दिमाग में वे बातें गहरी खुदी हुई हैं। अच्छा लगता है आज की किशोरियों की मांओं यानी अपनी पीढ़ी की परिचित औरतों को अपनी बेटियों के सामान्य विकास की परवाह करता देख कर।

मैं उस समय चौदह साल की थी और अपने आप से ही जूझ रही थी- शरीर और मन के बदलावों से। लगता था सारी दुनिया की नज़रें मुझ पर हैं। हर जगह, हर समय बंदिश है, कुछ अपने संकोच की, कुछ मां की हिदायतों की। मन करता था, किसी ऐसी जगह जा कर रहा जाए जहां मन-मुताबिक हाथों-पैरों और दिलो-दिमाग को पूरी तरह ढीला छोड़कर कुछ देर जिया जा सके। छातियों के बढ़ने के दर्द को सहा पर कभी किसी से कह नहीं पाई। मां ने कभी इन सब विषयों पर बात नहीं की। मुझसे बड़ी एक बहन भी थी, लेकिन कभी खयाल नहीं आया कि उससे ही कुछ पूछा जाए। उस स्तर पर उससे कभी बातचीत ही नहीं होती थी। मां ने कभी बात तो नहीं की लेकिन कभी शाम को कॉलोनी की ही सहेलियों के घर से लौटने में देरी हो तो ताने जरूर दिए- लाज-शर्म नहीं है। और जबाव मेरी आवेश भरी आंखों में होता था- हां, तो मैं क्या करूं। इसमें मेरी क्या गलती है। और एक बार नहीं, अनेक बार मैंने मनाया कि मैं लड़की रहूं भी तो इन छातियों के साथ नहीं। उन्हें छुपाने की कोशिश में कसी हुई शमीज पहनने से लेकर स्कर्ट या मिडी में टक-इन की हुई शर्ट को ढीला रखते हुए उसके नीचे पहनी शमीज़ को खींच-खींच कर रखने जैसे न जाने कितने उपाय किए लेकिन उनका आकार नहीं घटा, बल्कि बढ़ता ही गया।...

...लेकिन स्तन क्या इतने ही अवांछनीय और शर्मिंदगी का विषय हैं कि उनके बारे में चर्चा भी सहज होकर न की जा सके? दरअसल यह बात मुझे काफी देर हो जाने के बाद समझ में आई कि ये शर्मिंदगी का विषय तब हैं, जब छोटी-छोटी अनभिज्ञताओं की वजह से नवजात शिशु दूध न पी पाए। समय पर उनका वास्तविक इस्तेमाल न हो पाए।

समान कपड़ों और बालों वाले समूह में स्त्री-पुरुष की पहचान करनी हो तो नजर सबसे पहले सीने की तरफ जाती है। यह स्त्रीत्व का बाहरी निशान है। मेडिकल तथ्य यह है कि इसका आकार-प्रकार बच्चे को दूध पिलाने का अपना मकसद पूरा करने में आड़े नहीं आता। लेकिन पुरुष प्रधान समाज में इसे ही स्त्रीत्व मान लिया जाता है।

एक तरफ तो बार्बी डॉल जैसे अवास्तविक आदर्श हैं और मर्लिन मुनरो जैसी फैंटसी, जिनसे बराबरी की भावना समाज बचपन से ही हमारे मन में लगातार भरता रहता है। और इसी लक्ष्य को पाने की कोशिश में हम कभी अपने शरीर के इस हिस्से को जैसा है, उसी रूप में स्वीकार नहीं कर पातीं। उसमें हमेशा कमी-बेशी नजर आती है। हमें हमेशा याद दिलाया जाता है कि यही हमारे नारीत्व का केंद्र है और इसे आदर्श रूप में रखना है।

दूसरी तरफ हमें उसी पर शर्मिंदा होना भी सिखाया जाता है। शो बिजनेस से जुड़ी औरतें शरीर के इस हिस्से का प्रदर्शन कर सकती हैं। लेकिन सामान्य ' भद्र' महिला से उम्मीद की जाती है कि वह लोगों के बीच इसे ठीक ढंग से ढक-छुपा कर रखे। 'प्लेबॉय' और 'कॉस्मोपॉलिटन' के कवर पेज पर इस प्रदर्शन का स्वागत है लेकिन आम औरत का सार्वजनिक रूप से इस तरह के गैर-इरादतन व्यवहार का अंश मात्र भी निंदनीय और दंडनीय है।...

...स्तन कैंसर के शुरुआती लक्षण भी उन्हीं दिनों उभर रहे थे। अगर मैं इस बारे में जानती होती या डॉक्टर ध्यान देते तो सब समझा जा सकता था। अब (कैंसर के बारे में) इतना कुछ पढ़ने-जानने के बाद साफ-साफ एक ही दिशा (स्तन में कैंसर होने) की ओर इशारा करती उन घटनाओं का सिलसिला जोड़ने में कोई कठिनाई नहीं होती।“

Saturday, September 6, 2008

कैंसर हार रहा है

इंदौर में कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें कभी कैंसर ने दबोचा था लेकिन उनमें ऐसा कुछ था जिसके चलते उन्होंने न केवल इसे हराया बल्कि वापस जीवन में लौटकर वे फिर हंसते-गाते देखे जा सकते हैं। जीवन के रस से सराबोर, हर पल को अमूल्य समझते हुए अपने परिजनों और मित्रों के साथ खिलखिलाते हुए। उनके जीवन में आस्था के फूल खिले हैं और उनकी खुशबू में अपनी जिजीविषा को वे नए अर्थ दे रहे हैं। वेब दुनिया के रवींद्र व्यास ने 2002 में यह लेख लिखा था, लेकिन यह आज भी बराबर सामयिक और सार्थक है।- अनुराधा

गुडबाय कैंसर

रवींद्र व्यास

पता नहीं वह किस दिशा से आता है। कब आता है। बिना कोई आहट किए...देब पांव। धीरे-धीरे, चुपचाप। और आकर ऐसे दबोचता है कि जीवन का रस सूखने लगता है और जीवन के वसंत में पतझड़ का सन्नाटा पसर जाता है। लगता है जैसे वह किसी केकड़े की तरह सरकता हुआ भरे-पूरे जीवन को अपने जबड़ों जकड़ लेता है। उसका नाम सुनते ही भय पैदा होता है। सिहरन-सी दौड़ जाती है...कंपकंपी पैदा होती है....कैंसर।

मेरे शहर इंदौर मे कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें कैंसर ने कभी दबोचा था लेकिन उनमें ऐसा कुछ माद्दा था जिसके चलते उन्होंने न केवल कैंसर को हराया बल्कि जीवन में वापस लौटकर वे फिर हंसते-गाते देखे जा सकते हैं। जीवन के रस से सराबोर, हर पल को अमूल्य समझते हुए। अपने परिजनों और मित्रों के साथ खिलखिलाते हुए। उनके जीवन में आस्था के फूल खिले हैं और उनकी खुशबू में अपनी जिजीविषा को वे नए अर्थ दे रहे हैं।

अपने आत्मबल, आत्मविश्वास, अदम्य और अथक संघर्ष के साथ वे एक भरा-पूरा जीवन जी रहे हैं। कुछ मित्र-परिजनों का आत्मीय साथ, हमेशा हिम्मत बंधाता हुआ। और मौन के समुद्र में प्रार्थना के मोती झिलमिला रहे हैं जिनसे निकलती रोशनी की किरणें उनके जीवन को सुनहरा बना रही हैं। श्रीमती सीमा नातू को सन् 98 में पता चला कि उन्हें कैंसर है। वे कहती हैं-तब मेरे सामने मेरा दो साल का बेटा था। मैंने ज्यादा सोचा नहीं क्योंकि आदमी सोच-सोचकर ही आधा मर जाता है। बेटे को देख-देखकर ही मैंने ठाना कि कि मुझे जीना है। स्वस्थ रहना है। मैंने कई शारीरिक और मानसिक तकलीफों को सहा और भोगा लेकिन हार नहीं मानी। आज मैं स्वस्थ हूं।

सुगम संगीत की शौकीन श्रीमती नातू अब सामान्य जीवन बिता रही हैं। वे कहती हैं-मैं जीवन का हर पल जीना चाहती हूं। हर पल का सदुपयोग करना चाहती हूं।

एक युवा हैं नितीन शुक्ल। हट्टे-कट्टे। हमेशा हंसते-खिलखिलाते। उन्हें देखकर कल्पना करना मुश्किल है कि उन्हें कैंसर हुआ था। उनका हंसमुख व्यक्तित्व बरबस ही आकर्षित करता है। वे बहुत ही मार्मिक बात कहते हैं-यह जानकर कि मुझे कैंसर है, मैं डरा नहीं। निराश भी नहीं हुआ। मुझे लगता है कैंसर रोगी उतना प्रभावित नहीं होता जितना उसके परिवार वाले। उनके चेहरों पर हमेशा दुःख और भय की परछाइयां देखी-महसूस की जा सकती हैं। इसलिए मैंने तय किया कि मैं कैंसर से फाइट करूंगा और अपने परिवार को बचा लूंगा। दो बेटियों के पिता नितीन कहते हैं मैं अपने छोटे भाई के साथ मुंबई अकेला गया। सारी टेस्ट कराईं। इलाज कराया। मैंने हिम्मत नहीं हारी औऱ आज आप मुझे अपने परिवार के साथ हंसता-खेलता देख रहे हैं।

कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने कैंसर पर विजय पाकर अपने जीवन को दूसरों के लिए समर्पित कर दिया है। इनमें से एक हैं श्रीमती विशाखा मराठे। वे इंदौर के एक वृद्धाश्रम में बुजुर्गों की सेवा करती हैं। उन्हें सन् 96 स्तन कैंसर हुआ था। पहला आपरेशन बिगड़ गया वे दुःखी थीं लेकिन टूटी नहीं, हारी नहीं। वे कहती हैं-मेरे तीन आपरेशन हुए और ठीक होने के बाद मैंने तय किया कि असहाय लोगों के लिए काम करूंगी। मुंबई में टाटा इंस्टिट्यूट में ट्रेनिंग ली, गाड़ी चलाना सीखा और आज मैं घर और बाहर के अपने सारे काम करती हूं।

इसी तरह युवा आरती खेर का मामला भी बहुत विलक्षण है। परिवार में सबसे पहले उन्हें ही सन् 95 में पता लगा कि उन्हें ब्लड कैंसर है। वे कहती हैं- आप विश्वास नहीं करेंगे, मैं कतई दुःखी नहीं हुई। निराश भी नहीं। शारीरिक तकलीफ तो सहन करना ही पड़ती है। मुझे नहीं पता मुझे कहां से शक्ति आ गई थी। मैंने अपने डॉक्टर के निर्देशों का सख्ती से पालन किया। इसीलिए जल्दी अच्छे रिजल्ट्स मिलने लगे और एक दिन मैं ठीक हो गई। आरती ठीक हो गई हैं और पेंटिंग का अपना शौक बरकरार रखे हुए हैं। वे मनचाही तस्वीर बनाती हैं, मनचाहे रंग भरती हैं। वे बच्चों को पढ़ाती भी हैं।

श्रीमती आशा क्षीरसागर का मामला अलग है। उन्हें जब मालूम हुआ कि वे कैंसरग्रस्त हैं तो उन्हें धक्का लगा। वे बेहत हताश हो गईं। वे कहती हैं-मुझे लगा अब जिंदगी मेरे हाथ छूट गई है। मुंबई इलाज के लिए गई। वापस आई तो लगा जीवन ऐसे ही खत्म नहीं हो सकता। इसलिए अपने दुःख-निराशा को झाड़-पोंछकर फिर सामान्य जीवन में आ गई हूं। अब मैं घर के सारे काम बखूबी संभाल लेती हूं। खूब घुमती-फिरती हूं। फिल्में देखती हूं। लगता है कैंसर के बावजूद जीवन कितना सुंदर है।

बैंक के सेवानिवृत्त अधिकारी एम.एल. वर्मा को सन् 89 में इसोफेगस का कैंसर हुआ। उनकी आवाज चली गई थी। बोलने में बेहत तकलीफ होती थी। सांस लेने में जान जाती लगती थी। वे कहती हैं-मेरी चार लड़कियां हैं। मुझे ठीक होना ही था। मैं ठीक हुआ। कैंसर से लड़ने की ताकत मुझे अपनी बेटियों से मिली। मैं तीन की शादी कर चुका हूं, चौथी की तैयारी है। श्री वर्मा का स्वर यंत्र निकलने के बावजूद वे अब ठीक से बोल पाते हैं। खाने-पीने में शुरुआती तकलीफ के बाद अब इसमें कोई समस्या नहीं आती। वे कहते हैं-मौत एक बार आनी ही है लेकिन विल पावर के चलते आप बड़ी से बड़ी प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ सकते हैं। दो-तीन कीमो-थैरेपी और 30 रेडिएशन के बाद उनके गले में छेद किया गया था जिसके बदौलत वे बोल पाते हैं। पेट से हवा खींचकर वे अपने स्पीच को इम्प्रूव कर रहे हैं। यानी बिना स्वर यंत्र के जीवन से सुर मिला रहे हैं। वे कहते हैं-कैंसर होने के आठ साल तक यानी सेवानिवृत्त होने तक ईमानदारी से नौकरी की। आज मैं अपने जीवन से संतुष्ट हूं।

तो ये वे लोग हैं जो कैंसर को पूरी तरह जीत चुके हैं। कहने की जरूरत नहीं, जीवन जीने की की अदम्य चाह के कारण ही वे एक बड़े रोग से गुजरकर, जीवन के वसंत में सांसें ले रहे हैं। जहां उनके स्वप्न हैं, उनकी आकांक्षाएं हैं, छोटे-छोटे सुख हैं और है एक भरा-पूरा संसार जो लगातार उन्हें कुछ सार्थक करने की प्रेरणा और उत्साह देता रहता है। क्या इनका जीवन दूसरे लोगों के लिए प्रेरणा नहीं बन सकता?

Thursday, September 4, 2008

युवावस्था में भी दिख जाते हैं स्तन कैंसर के लक्षण


ज्यदातर लोग जानते हैं कि फैमिली हिस्ट्री, ज्यादा उम्र जैसे कारक स्तन कैंसर के जोखिम को बढ़ाते हैं।

ताजा खबर ये है कि महिलाओं में होने वाले स्तन कैंसर के खतरे का आकलन उनकी युवावस्था में भी काफी हद तक किया जा सकता है।

ताजा रिसर्च बताता है कि कुछ सामान्य और कैंसर से जुड़े न लगने वाले कम उम्र के लक्षण भी किसी को स्तन कैंसर होने की संभावना को आंकने में मदद कर सकते हैं। यहां तक कि उनके ट्यूमर के प्रकार का भी अंदाजा भी देते है। इसलिए अपनी कुछ आदतों में बदलाव करके वे महिलाएं ज्यादा आक्रामक प्रकार के कैंसर की संभावना को कम आक्रामक कैंसर में बदलने की कोशिश भी कर सकती हैं।

इसीलिए डॉक्टर हमेशा कहते हैं कि शरीर का ज्यादा वज़न, खास तौर पर युवावस्था में अचानक बढ़ने वाला वज़न हमेशा खतरे की घंटी होता है, इसे अनसुना करना खतरनाक है।

कुछ महिलाओं के कैंसर का इलाज आसानी से हो जाता है जबकि दूसरों का स्तन कैंसर ज्यादा खतरनाक होता है, क्यों? इसमें जीन और अनुवांशिकता का हाथ जरूर होता है। लेकिन वैज्ञानिकों ने पाया है कि महिलाओं की पर्सनल हिस्ट्री से भी उनके कैंसर का प्रकार काफी हद तक निर्धारित होता है।

फ्रेड हचिंसन कैंसर रिसर्च सेंटर के डॉक्टरों ने 1100 विभिन्न प्रकार के स्तन कैंसरों की मरीज महिलाओं और 1500 स्वस्थ महिलाओं में युवावस्था के दौरान कुछ खास लक्षणों और आदतों की तुलना की। उन्होंने पाया कि जिन महिलाओं ने अपने बच्चों को कम से कम 6 माह तक स्तनपान कराया था उन्हें ज्यादा खतरनाक कैंसर का खतरा दूसरों के मुकाबले आधा था।

इसके अलावा जिन महिलाओं के पीरियड जल्दी शुरू होते हैं उनके ट्यूमर का इलाज, देर से रजस्वला होने वाली महिलाओं के कैंसर की तुलना में दो गुना ज्यादा कठिन होता है। देर से रजस्वला होने वाली महिलाओं का ट्यूमर ईस्ट्रोजन सेंसिटिव होने की संभावना ज्यादा होती है। इसका सीधा सरल मतलब यह है कि उन्हें अगर कैंसर हो तो उसका इलाज ज्यादा सरल और सफल होता है।

अभी इससे आगे का रिसर्च जारी है इसलिए यहां जानकारी का अंत नहीं होता। हम सब इंतज़ार करें, इस क्षेत्र में किसी ब्रेकथ्रू का जो इस मानवीय त्रासदी से निबटने का रास्ता दिखाए।

Saturday, August 30, 2008

'नई दुनिया' में 'इंद्रधनुष'


इंदौर से निकलने वाले अखबार नई दुनिया के ब्लाग्स पर रवंद्र व्यास जी के कालम में इस बार, 29 अगस्त को अपने इसी ब्लाग की चर्चा हुई है। इस कालम का लिंक नीचे है। आप भी देखें। http://hindi.webdunia.com/samayik/article/article/0808/29/1080829044_1.htm

Wednesday, August 27, 2008

कैंसर पहेली - 2

इस हिस्से में त्वचा, कोलोन, प्रोस्टेट के कैंसर से जुड़े सवाल-जवाब। जवाब अंत में दिए गए हैं।

9. कोलोन कैंसर का संबंध जेनेटिक बीमारियों से है।
O सही
O गलत

10. प्रोस्टेट कैंसर की नियमित जांच करवाने की कोई जरूरत नहीं है।
O सही
O गलत

11. खून की जांच से प्रोस्टेट कैंसर का पता लग सकता है।
O सही
O गलत

12. त्वचा का कैंसर गोरे लोगों को ही होता है, कालों को नहीं हो सकता।
O सही
O गलत

13. जन्म के समय त्वचा पर ज्यादा तिल हों तो त्वचा के कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।
O सही
O गलत

14. बचपन में ज्यादा धूप सेकने सा त्वचा के कैंसर से कोई संबंध नहीं है।
O सही
O गलत

9. परिवार में किसी को मधुमेह, अल्ज़ाइमर्स, ग्लैकोमा या कैंसर रहा हो तो कोलोन (मलाशय) कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है।

10. पुरुषों को 50 साल की उम्र से प्रोस्टेट कैंसर के लिए नियमित जांच करवानी चाहिए। परिवार में इसकी हिस्ट्री होने पर यह जांच 45 की उम्र में शुरू कर देनी चाहिए।

11. खून की पीएसए जांच से उसमें मौजूद एंटीजेन की मौजूदगी का पता लगता है। इस एंटीजेन के ज्यादा होने से प्रोस्टेट कैंसर का अंदेशा होता है।

12. त्वचा का कैंसर किसी को भी हो सकता है। गहरे रंग की त्वचा में मेलानिन पिगमेंट ज्यादा होता है जो सूर्य की पराबैंगनी (अल्ट्रावॉयलेट) किरणों को रोकता है। इसलिए त्वचा में ज्यादा मेलानिन हो तो कैंसर का खतरा कम हो जाता है लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं होता।

13. ज्यादातर तिल जन्म के बाद ही बनते हैं। लेकिन कुछ लोगों को जन्म से ही तिल होते हैं। पैदाइसी तिलों से त्वचा के कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।

14. लंबे समय तक खाई तेज धूप त्वचा पर स्थाई असर डाल सकती है। बचपन में ज्यादा धूप खाने से बड़े होने पर मेलानोमा का खतरा बढ़ जाता है।

Tuesday, July 22, 2008

कैंसर पहेली - 1

कैंसर के बारे में आप कितना जानते हैं? इन सवालों का जबाव दीजिए और लीजिए अपने कैंसर ज्ञान की परीक्षा।

सवालों के जवाब अंत में दिए गए हैं। खास बात ये है कि इस पहेली में चोरी से जवाब देख लेने की पूरी छूट है। तो हैं तैयार?

1. कम उम्र की खान-पान, सिगरेट-तंबाकू की बुरी आदतों का बड़ी उम्र में कोई असर नहीं पड़ता।
* सही
* गलत

2. सर्जरी से कैंसर का इलाज करने से वह फैलता है
* सही
* गलत

3. विशेषज्ञ कैंसर का पुख्ता इलाज ढू़ढ चुके हैं। लेकिन महंगे, लंबे इलाज से वे ज्यादा धन कमाना चाहते हैं।
* सही
* गलत

4. ग्रिल्ड मीट नियमित रूप से खाने से कैंसर का कोई संबंध नहीं है।
* सही
* गलत

5. घरेलू कीटनाशक स्प्रे से कैंसर नहीं होता।
* सही
* गलत

6. पुरुषों को स्तन कैंसर नहीं होता।
* सही
* गलत

7. स्तन कैंसर शहरी महिलाओं में सबसे ज्यादा होने वाला कैंसर है।
* सही
* गलत

8. स्तन कैंसर की जांच के लिए विशेषज्ञ किस उम्र से नियमित मैमोग्राम कराने की सलाह देते हैं?
* 40 साल
* 50 साल

जवाब:

1. ज्यादातर मामलों में लंबे समय से काम कर रहे कई कारक मिलकर कैंसर को जन्म देते हैं। इसलिए युवावस्था के खान-पान, धूम्रपान, शारीरिक गतिविधियों का असर शरीर पर बाद के जीवन में भी दिखाई पड़ता है।

2. कैंसर के विशेषज्ञ सर्जन जानते हैं कि किस तरह सुरक्षित डंग से बायोप्सी या ऑपरेशन किया जाए कि कंसर न फैले। कई तरह के कैंसरों में तो सर्जरी ही सबसे पक्का इलाज है।

3. यह लोगों का वहम है। जरा खुद सोचिए, डॉक्टरों के अपने रिश्तेदार कैंसर का वही इलाज करवा रहे हैं जो बाकी लोग। उनमें से कई मर भी रहे हैं। ऐसे में क्या यह सही हो सकता है कि कोई भी डॉक्टर इलाज जानबूझ कर न करे? कैंसर एक नहीं बल्कि कई तरह का होता है और सबका इलाज अलग-अलग होता है। इनमें से कुछ का इलाज ढूंढा जा चुका है।

4. बार्बेक्यू के ज्यादा इस्तेमाल से कैंसर का रिस्क बढ़ जाता है। मीट को ग्रिल करने, कास तौर पर ज्यादा पकाने या जलाने से उसमें कैंसरकारी तत्व बन जाते हैं। ज्यादा अनाज, फल और सब्जियां काना इसका अच्छा विकल्प है।

5. मौजूदा रिसर्च साबित नहीं करते कि घरेलू कीटनाशक स्प्रे और कैंसर में सीधा संबंध है। लेकिन इनका फेफड़ों में जाना या सीधे संपर्क में आना खतरनाक है। हालांकि पेड़-पौधों में डाले जाने वाले कीटनाशक कई तरह के कैंसरों को बढ़ावा देते हैं।

6. स्तन कैंसर के हर 200 मरीजों में से एक पुरुष हो सकता है।

7. दुनिया में महिलाओं को सबसे ज्यादा स्तन कैंसर ही हो रहा है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हिंदुस्तान में हर एक लाख औरतों में 32 स्तन कैंसर से पीड़ित हैं। बड़े शहरों में दस में से एक महिला को स्तन कैंसर होने की संभावना है।

8. अमरीका की नैशनल कैंसर इंस्टीट्यूट, अमेरिकन कैंसर सोसाइटी और अमेरिकन मेडीकल एसोसिएशन के मुताबिक 40 की उम्र के बाद महिलाओं को एक या दो साल में मैमोग्राम करवाना चाहिए।

Tuesday, July 8, 2008

आसान हो रहा है कैंसर के साथ जीना

# अब लोग कैंसर के साथ लंबा और बेहतर जीवन जी रहे हैं।

# नई दवाओं और इलाज के तरीकों ने माहौल और लोगों के सोचने का ढंग बदल दिया है।

# अस्पतालों में ऐसे कई कैंसर के मरीज आपको मिल जाएंगे जो पिछले 24-25 साल से तमाम आशंकाओं को नकारते हुए अपना सफर ज़िंदादिली के साथ तय कर रहे हैं। काफी संभव है कि जब मृत्यु आए तो उसकी वजह कैंसर न हो।

# मरीज़ के ठीक होने की अनिवार्यता की जगह उसका जीवन बेहतर बनाने की कोशिश को अहमियत दी जा रही है।

# चिकित्सा समाज में यह बदलाव क्रांतिकारी है।

# मेटास्टैटिक (शरीर के दूसरे हिस्सों में फैले) कैंसर के मरीजों में भी भविष्य को लेकर उम्मीद जाग रही है।

# कैंसर के मरीज़ों के लिए अच्छी तरह जीने का इससे बेहतर वक्त कभी नहीं रहा।

ये कुछ बिंदु मैंने लेख आखिरकार हार रहा है कैंसर में उठाए हैं। यह लेख 8 जुलाई 2008 को नवभारत टाइम्स के संपादकीय पृष्ठ पर मुख्य लेख के रूप में प्रकाशित हुआ है।

आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार है।

Saturday, July 5, 2008

यहां भी हंसने से बाज़ नहीं आता इंसान!

कई तकलीफों का मुफ्त इलाज है हंसी। ज़ाहिर है, कैसर होने की खबर पाने के बाद कोई हंसता हुआ डॉक्टर के कमरे से नहीं निकलता। लेकिन ये भी सच है कैंसर हजारों बार हंसने के मौके देता है। शर्त ये है कि दिल होना चाहिए, अपनी हालत पर हंसने का और दूसरों को हंसने देने का। हंसी कैंसर से जुड़ी चिंताओं को भुलाने का मौका देती है और मरीजों की जिंदगी के अंधेरे कोनों तक भी पहुंचने के लिए रौशनी की किरण को रास्ता बताती है। एक बीमारी ही तो हुई है, उसकी चिंता में आज जिंदगी जीने से क्यों रुका जाए भला! और अगर सचमुच जिंदगी कम बाकी है तब तो और भी जरूरी है कि सब कुछ किया जाए। भरपूर जी भी लिया जाए, जल्दी-जल्दी। ताकि कुछ बाकी न रह जाए।

तो जनाब पेश-ए-खिदमत हैं, कैंसर की दुनिया के कुछ चुटकुले। इनमें से कुछ अपने, कुछ उधार के हैं।



* सवाल- एक व्यक्ति जिसे बार-बार लिंफोमा (लसीका ग्रंथि का कैंसर) होता है?
जवाब- लिंफोमैनियाक।

* -गेहूं की कोमल बालियों का रस कैंसर को रोकता है।
सच जनाब, कभी घोड़े को कैंसर होते सुना है?

* -गाजर का सेवन कैंसर से बचाता है।
-सच जनाब, कभी खरगोश को कैंसर होते सुना है?

* -कैंसर कोई हंसी ठट्ठा नहीं है।
पूछिए उससे जो कैंसर से मर चुका है।

*-कैंसर बहुत तकलीफदेह होता है, सच कहा।
मेरी पत्नी की मौत कैंसर से ही हुई थी।
अब अपने हाथ से पका खाना खाने की असहनीय पीड़ा हर दिन झेल रहा हूं।

* -अगर बॉस या कंपनी से बदला लेना है, तो केस ठोक दीजिए कि नौकरी में तनाव की वजह से कैंसर हो गया। और देखिए मज़ा।

* -गठिया के दर्द से परेशान कोई बूढ़ा कैंसर के जवान मरीज को देखकर रश्क करता है- इसे मेरी तरह बुढ़ापा नहीं देखना पड़ेगा।

Friday, June 20, 2008

कैंसर : आधुनिक नज़्म शायर की कलम से

साक़ी फारुकी मॉडर्न उर्दू नज्म शायरों में महत्वपूर्ण दस्तखत हैं। वे लंदन में रहते है। पिछले दिनों उनकी यह नज़्म सुनने को मिली तो मैंने इसे झट कलमबंद कर लिया। यहां आप सब की नज़र है ब्रेस्ट कैंसर पर लिखी उनकी यह नज़्म।

जिन मेहताब(1) प्यालों से
डेढ़ बरस तक
रोज हमारी बेटी ने
सब्ज़ सुनहरे बचपन
घनी जवानी
रौशन मुस्तक़बिल(2)
का नूर पिया है,
चटख़ गए हैं
उन खुर्शीद(3) शिवालों(4) में
जहरीले सरतान(5) कोबरे
कुंटली मारके बैठे हैं
दिल रोता है
मैंने तेरे सीने पर
खाली आंखें मल-मल के
आज गुलाल का
सारा रंग उतार लिया है
-साकी फारुक़ी

नोट: (1)= चांद (2)= भविष्य (3)= सूर्य (4)= मंदिरों (5) = कैंसर

Thursday, June 19, 2008

कैंसर के होने का अंदाजा खुद भी लगा सकते हैं

खुद को आइने में हम रोज देखते हैं- लेकिन आम तौर पर श्रृंगार के लिए। क्यों न सेहत के लिए भी खुद को देखने की आदत डाल लें। जैसा कि पहले भी जिक्र आ चुका है- कैंसर बड़ी बीमारी है लेकिन अपनी सजगता से हम इसके इलाज को सफल और सरल बना सकते हैं- बीमारी का जल्द से जल्द पता लगा कर। कई बार डॉक्टर से पहले हमें ही पता लग जाता है कि हमारे शरीर में कुछ बदलाव है, कुछ गड़बड़ है। शरीर का मुआयना इस बदलाव को सचेत ढंग से पहचानने का एक जरिया है।

त्वचा के कैंसर का पता अपनी जांच कर के लगाया जा सकता है। खूब रौशनी वाली जगह में आइने के सामने अपने पूरे शरीर की त्वचा का मुआयना कीजिए। नाखूनों के नीचे, खोपड़ी, हथेली, पैरों के तलवे जैसी छुपी जगहों का भी।

कहीं कोई नया तिल, मस्सा या रंगीन चकत्ता तो नहीं उभर आया?

कोई पुराना तिल या मस्सा आकार-प्रकार में बड़ा या कड़ा तो नहीं हो गया?

मस्से या तिल का रंग तो नहीं बदला, उससे खून तो नहीं निकलता?

किसी जगह कोई असामान्य गिल्टी या उभार दिखता या महसूस होता है?

त्वचा पर कोई कटन या घाव जो ठीक नहीं हो रहा हो, बल्कि बढ़ रहा हो?


इनमें से किसी भी सवाल का जवाब अगर अपनी जांच के बाद 'हां' में मिलता है तो फौरन डॉक्टर से बात करनी चाहिए।

तंबाकू खाने की आदतों के कारण मुंह का कैंसर भारतीय पुरुषों में सबसे ज्यादा होने वाला कैंसर है। मुंह के भीतर और आसपास का नियमित मुआयना कैंसर की जल्दी पहचान करने में मदद करता है। इस तरह कई बार तो कैंसर होने के पहले की स्टेज पर भी इसे पहचाना जा सकता है। मुंह के कैंसर के लक्षण कैंसर होने के काफी पहले ही दिखने लगते हैं। इसलिए उन्हें पहचान कर अगर जल्द इलाज कराया जाए और तंबाकू सेवन छोड़ने जैसे उपाय किए जाएं तो इससे बचा भी जा सकता है। मुंह के भीतर कहीं भी- मसूढ़ों, जीभ, तालु, होंठ, गाल, गले के पास लाल या सफेद चकत्ते या दाग या छोटी-बड़ी गांठ दिखें तो सचेत हो जाना चाहिए।

मेरी एक मित्र के पिता न सिगरेट शराब पीते थे न तंबाकू उन्होंने कभी चखा। पर कोई 65 की उम्र में अचानक उन्हें मिर्च या नमक तक खाने में मसूढ़ों में जलन महसूस होने लगी। डॉक्टर के पास जांच करवाई तो पता लगा उन्हें मसूढ़ों का कैंसर था। सब हैरान थे कि बिना किसी गलत शौक के भी कैसे उन्हें कैंसर हुआ। फिर पता लगा, वे लंबे समय से नकली दांतों के सेट का इस्तेमाल कर रहे थे, जो जबड़ों पर ठीक से नहीं बैठता था। और वही था जिम्मेदार उनके मुंह में कैंसर पैदा करने के लिए।

मुंह की जांच भी हर दिन करना चाहिए, खास तौर पर तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन करने वालों और मुंह में नकली दांत लगाने वालों, दांतों को ठीक करने वाले स्थाई तार आदि लगाने वालों, टेढ़े-मेढ़े दांतों वालों, गाल चबाने की आदत वालों को भी। दरअसल कोई भी बाहरी चीज जब मुंह की नाजुक त्वचा को लगातार चोट पहुंचाती है तो एक सीमा के बाद शरीर उसे झेलने से मना कर देता है। नतीजा होता है उस जगह चमड़ी का मोटा होना, छिल जाना, लाल या सफेद हो जाना आदि। यही बाद में कैंसर बनकर फैल जाता है।

मुंह की जांच करने सा सबसे अच्छा समय है, सुबह ब्रश करके मुंह अच्छी तरह धो लेने के बाद। उस समय मुंह में खाने का कोई बचा हुआ अंश नहीं होगा जो जांच में रुकावट डाले।

अच्छी रौशनी वाली जगह में आइने खड़े हो जाएं जहां पर मुंह खोलने पर उसके भीतरी भाग को आसानी से देख सकते हों।

मुंह के हिस्सों को क्रम से देखते चलें-
1. मुंह बंद रखकर अंगुलियों के सिरों से पकड़ कर होठों को उठाएं और उन पर भरपूर नजर डालें।
2. ओठों को उठा कर पीछे कर दें और दांतों को साथ रख कर मसूढ़ों को सावधानी से देखें।
3. मुंह को पूरा खोल कर जीभ के ऊपरी हिस्से को देखें।
4. तालू यानी मुंह की छत पर और जीभ के नीचे भरपूर नजर डालें।
5. गालों के भीतरी हिस्सों को भी अच्छी रौशनी में ठीक से देखें।

कहीं भी कोई घाव, या चकत्ता नजर आता है? चकत्ता सफेद या लाल भी हो सकता है।

मसूढ़ों से खून तो नहीं निकलता? कोई मसूढ़ा किसी जगह सामान्य मसूढ़ों से ज्यादा मोटा तो नहीं हो गया है?

कोई दांत अचानक तो ढ़ीला होकर गिर नहीं गया?

क्या जीभ उतनी ही बाहर निकाल पाते हैं जितनी पहले, या इसमें कोई अड़चन महसूस होती है?

मुंह के भीतर कहीं भी कोई गांठ या असामान्य बात नजर आती है?


अगर इनमें से एक भी सवाल का जवाब 'हां' में पाते हैं तो फौरन डॉक्टर से जांच करवाएं। इसके अलावा आवाज में बदलाव, लगातार खांसी, निगलने में तकलीफ, गले में खराश को भी नजरअंदाज कतई नहीं करना चाहिए।

Thursday, June 5, 2008

बेआवाज़ शैतान की आहट सुनना सीखें हम

अब मेरे पसंदीदा विषय पर कुछ बात हो जाए। ज्यादा जगह बर्बाद किए बिना मुद्दे पर आते हैं। भारत में स्तन कैंसर के मामले बढ़ने की रफ्तार तेजी पकड़ती जा रही है। अमरीका में हर 9 में से एक महिला को स्तन कैंसर होने की संभावना होती है। इसके मुकाबले भारत में अनुमान है कि हर 22 वीं महिला को अपने जीवनकाल में कभी न कभी स्तन कैंसर होने की संभावना है। इस तरह अगर हर परिवार में न्यूनतम दो महिलाएं हों तो हर ग्यारहवां परिवार स्तन कैंसर को झेलने के लिए तैयार रहे। यह आंकड़ा शहरों में और ज्यादा है। पर इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि गांवों में ऐसे कई मामले रिपोर्ट भी नहीं होते।

कुल मिला कर शहरी महिलाओं में स्तन का कैंसर सबसे आम है। कुछ समय पहले तक बच्चेदानी के मुंह यानी सर्वाइकल कैंसर के मामले ज्यादा होते थे, लेकिन अब स्तन कैंसर ने आंकड़ों में इसे पछाड़ दिया है। गांव भी इस आंकड़ा-पलट को करीब आता देख रहे हैं।

आंकड़ों को जाने दें तो भी हमारे यहां स्तन कैंसर का परिदृष्य भयावह है। इसके बारे में जागरूकता की और इसके निदान और इलाज की सिरे से कमी के कारण ज्यादातर मामलों में एक तो मरीज इलाज के लिए सही समय पर सही जगह नहीं पहुंच पाता। दूसरे इसके महंगे और बड़े शहरों तक ही सीमित इलाज के साधनों तक पहुंचना भी हर मरीज के लिए संभव नहीं।

यानी ज्यादातर मरीजों के बारे में सच यह है कि न इलाज इन तक पहुंच पाता है, न ये इलाज तक पहुंच पाते हैं। और जो पहुंच जाता है, उसका कैंसर तब तक बेकाबू हो गया रहता है। और अगर नहीं, तो पैसे की कमी के कारण वह इलाज बीच में ही बंद कर देता है। कई बार तो समय पर सही अस्पताल पहुंच कर पूरा खर्च करने के बाद भी कैंसर ठीक नहीं हो पाता। कारण- हमारे देश में विशेषज्ञता और इलाज की सुविधाओं की कमी।

ऐसे में सवाल यही आता है कि क्या करें कि हालात बेहतर हों। तो, हम समस्या की शुरुआत में ही बहुत कुछ कर सकते हैं। और यही सबसे जरूरी भी है कैंसर को काबू में करने के लिए। कैंसर के सफल इलाज का एकमात्र सूत्र है- जल्द पहचान। कैंसर की खासियत है कि यह दबे पांव आता है, बिना आहट के, बिना बड़े लक्षणों के। फिर भी कुछ तो सामान्य लगने वाले बदलाव कैंसर के मरीज में होते हैं, जो कैंसर की ओर संकेत करते हैं और अगर वह मरीज सतर्क, जागरूक हो तो वहीं पर मर्ज को दबोच सकता है। वरना थोड़ी छूट मिलते ही यह शैतान बेकाबू होकर बस, कहर ही ढाता है।

अपने स्तन और निप्पल को आइने में देखिए। स्तन को नीचे ब्रालाइन से ऊपर कॉलर बोन यानी गले के निचले सिरे तक और बगलों में भी अपनी तीन या चारों अंगुलियां मिला कर थोड़ा दबा कर महसूस करके देखिए। अंगुलियों का चलना नियमित गति और दिशाओं में हो।




(यह जांच शावर में या लेट कर भी कर सकते हैं।) कहीं ये बदलाव तो नहीं हैं-

1. स्तन या निप्पल के आकार में कोई असामान्य बदलाव।

2. कहीं कोई गांठ, चाहे वह मूंग की दाल के बराबर ही क्यों न हो। इसमें अक्सर दर्द नहीं रहता है।

3. इस पूरे इलाके में कहीं भी त्वचा में सूजन, लाली, खिंचाव या गड्ढे पड़ना या त्वचा में संतरे के छिलके के समान छोटे-छोटे छेद या दाने से बनना।

4. एक स्तन पर खून की नलियां ज्यादा स्पष्ट दिखने लगें।

5. निप्पल भीतर को खिंच गया हो या उसमें से दूध के अलावा कोई भी स्त्राव- सफेद, गुलाबी, लाल, भूरा, पनीला या किसी और रंग का, हो रहा हो।

6. स्तन में कही भी लगातार दर्द हो रहा हो तो भी डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए।

और ध्यान रहे, ये जांच हर महीने पीरियड के बाद नियम से करनी है। वैसे कई युवा महिलाओं को हर्मोनों में बदलाव की वजह से नियमित रूप से स्तन में सूजन, भारीपन या दर्द जैसे लक्षण होते हैं, जो कि सामान्य बात है। बल्कि स्तन में हुई गांठों में से 90 फीसदी गांठें कैंसर-रहित ही होती हैं। लेकिन इसकी आड़ में 10 फीसदी को अनदेखा तो नहीं किया जा सकता न!

Wednesday, June 4, 2008

कैसे शक करें कि कैंसर हो सकता है?

हमारे पास किसी भी चीज के लिए वक्त कम है, महानगरों में तो बहुत ही कम। लेकिन जीने से ज्यादा हड़बड़ी किसी और काम की हो सकती है क्या? तो अपनी सेहत के लिए अपने पर भी थोड़ा ध्यान दें, नजर रखें अपने शरीर में हो रही छोटी-मोटी तकलीफों और बदलावों पर जो देर होने पर बड़ी मुसीबत भी बन सकते हैं।

कैंसर के शुरुआती लक्षण-
1. भूख कम या न लगना
2. यादाश्त में कमी या सोचने में दिक्कत
3. लगातार खांसी जो ठीक नहीं हो रही हो, और थूक में खून आना
4. पाखाने या पेशाब की आदतों में बिना कारण बदलाव
5. पाखाने या पेशाब में खून जाना
6. बिना कारण खून की कमी
7. स्तन में या शरीर में किसी जगह स्थाई गांठ बनना या सूजन
8. किसी जगह से अकारण खून, पानी या मवाद निकलना
9. आवाज में खरखराहट
10. तिल या मस्से में बदलाव
11. निगलने या खाना हजम करने में परेशानी
12. बिना कारण वजन कम होना या बुखार आना
13. किसी घाव का न भरना
14. सिर में दर्द
15. कमर या पीठ में लगातार दर्द

Sunday, June 1, 2008

मां मार्गदर्शक, मां आदर्श

निकिता गारिया अभी पत्रकारिता में स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं। उनका लिखना सिर्फ शौक या कैरियर की जरूरत नहीं है। उन्होंने अपने ब्लॉग n life goes on में अपनी मां की आपबीती पर एक लेख लिखा है। मां का स्तन कैंसर से आमना-सामना और फिर उससे उबर कर सहज मानवीयता के तहत दूसरों को इस बीमारी के बारे में जागरुक करने की कोशिशें। बेटी सब देख रही है और यह सब उसकी सोच में दर्ज होता जा रहा है। उसने अपने ब्लॉग में मां पर यह पोस्ट डाली जिसे मैं उसकी इजाजत से यहां चेप रही हूं। मकसद हैं- बात, चाहे जिस माध्यम से हो, दूर तक, गहरे तक फैले ताकि कैंसर के खिलाफ मोर्चा मजबूत हो।


Cancer and beyond

It was 21st January 2002 when she was confronted with a reality, she did not want to accept. For a moment, her life came to a halt. She thought it was the end. With her translucent eyes, she saw her two little children. This was the day when she was told she had BREAST CANCER. She had never been so scared in her life, for her life. She only wanted God to answer her one question, “Why only me!”

****************

Five years hence, bearing the pain of countless therapies, she knows she is not alone. There are many like her and the number is only increasing. But the government has done little to spread awareness. Since, the most common sign of breast cancer is a new lump, which is painless; many women tend to ignore it. And in a society like ours, where talking about breasts is as much a taboo as sex, who will lead the awareness crusade?

It was then that she decided to take the plunge. So, she along with a friend(also a cancer patient) took upon themselves the onerous task of educating as many people as possible. They started out by informing people at kitty parties. It was tough to make the ladies ignore tambola and food, and make them listen to a lecture! However, they never gave up. For them, even if one woman gets motivated out of thirty, it’s a great achievement. As she says, “This is just the beginning.”

Thursday, May 22, 2008

कैंसर क्या है- एक अरब आवारा कोशिकाएं

कैंसर क्या नहीं है इस पर चर्चा होने के बाद जरूरी हो जाता है कि जाने, कैंसर क्या है। थोड़ी-बहुत पढ़ाई में मैंने जाना कि कैंसर दरअसल कुछ अधूरी कोशिकाओं का समूह है जो शरीर में कहीं भी बनकर बढ़ता है। इसकी शुरुआत एक कोशिका से होती है जो किन्हीं चयापचयिक (मेटाबॉलिक) कारणों से अचानक ही असंयमित व्यवहार करने लगती है। असामान्य तेजी से विभाजित होकर अपने जैसी बीमार कोशिकाओं का ढेर बना देने वाली इस कोशिका से ट्यूमर बनने में बरसों, कई बार तो दशकों लग जाते हैं। जब कम से कम एक अरब ऐसी कोशिकाएं इकट्ठा होती हैं तभी वह ट्यूमर पहचानने लायक आकार में आता है।


एक सामान्य कोशिका का कैंसरयुक्त कोशिका में बदलना
एक सामान्य सी लगने वाली कोशिका अपने विकास के किसी दौर में अचानक दिशाहीन क्यों हो जाती है, इस रहस्य को समझने में वैज्ञानिकों को बरसों लग गए। दरअसल हर कोशिका में निर्धारित संख्या में जीन होते हैं जो इसकी हर गतिविधि को निर्देशित करते हैं। इन्हीं में से कुछ जीन यह तय करते हैं कि कोशिका कब विभाजित हो और कब नहीं। इन्हें ऑन्कोजीन और ट्यूमर सप्रेसर जीन कहते हैं। जब इन जीनों की बनावट में कोई गड़बड़ी आती है तो इनसे कोशिका को उलटे-पुलटे निर्देश मिलने लगते हैं और उसी के अनुसार कोशिका में अनियमित और अनियंत्रित विभाजन शुरू हो जाता है।

वैज्ञानिकों ने बीसी-10 नाम का एक जीन खोजा है जो मूल रूप से एक पहरेदार का काम करता है और कोशिका के जरा बहकते ही उसे नष्ट कर देता है। लेकिन जब इसी जीन में गड़बड़ी आ जाती है तो वह कोशिका लक्ष्यहीन हो जाती है।
यह जानना दिलचस्प है कि हर कोशिका, चाहे वह कैंसर-युक्त हो या नहीं, अपने भीतर मृत्यु की कुंजी साथ लिए चलती है जिसे उत्तेजित किया जाए तो वह अपनी तरह की बाकी हमउम्र कोशिकाओं से जल्दी मर जाएगी। कोशिका में मौजूद आत्महत्या की इस मशीनरी को एपोप्टोसिस कहा जाता है।


एपोप्टोसिस यानी कोशिका करे आत्महत्या


एपोप्टोसिस कई आपस में संबंधित चरणों की एक श्रृंखला है। इसके शुरुआती बिंदु को छेड़ने भर की देर है और इसमें शामिल सभी प्रोटीन अपने आप क्रमश: सक्रिय हो जाते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे एक-दूसरे पर टिके ताश के पत्तों में से किनारे वाले पत्ते को छूते ही बाकी सभी पत्ते एक-के-बाद-एक उस पर गिरते जाते हैं।

कोशिकाओं की इस प्रवृत्ति का इस्तेमाल कई मौकों पर होता है। जैसे, शुरुआती समय में भ्रूण की अंगुलियों के बीच घना जाल मौजूद होता है। बाद में इस जाल की कोशिकाओं में एपोप्टोसिस की प्रक्रिया शुरू होती है और ये जाल नष्ट हो जाता है। शुरुआती अवस्था में कैंसर के खिलाफ शरीर भी इसी हथियार का इस्तेमाल करता है। जैसे ही कोई कोशिका असामान्य व्यवहार करने लगती है, उसमें मौजूद प्रहरी जीन किसी अज्ञात प्रक्रिया से उसे भांप लेता है और सदा सजग रहने वाली एपोप्टोसिस को सक्रिय होने का इशारा कर देता है। यह कैंसर के खिलाफ शरीर का पहला और सबसे जबर्दस्त युद्ध है।

वास्तव में हर व्यक्ति के जीवन क्रम में साधारण कैंसर के लाखों बेहद छोटे-छोटे ट्यूमर बनते और एपोप्टोसिस के जरिए खत्म भी होते रहते हैं। लेकिन कभी-कभार एकाध रोगी कोशिका अपने में कुछ बदलाव लाकर आत्महत्या की इस प्रक्रिया से बच निकलने में कामयाब हो जाती है और अपने जैसी असामान्य कोशिकाएं बनाना शुरू कर देती है। ये ही आखिर कैंसर के रूप में हमारे सामने आती हैं। यानी इस मौके पर जिंदगी और मौत के तराजू में कैंसर कोशिका की जिंदगी का पलड़ा ज्यादा भारी होता है। कैंसर को कोशिका के भीतर मौजूद अणुओं के स्तर तक जानने के बाद भी कैंसर की घटना के कई पहलू वैज्ञानिकों के लिए अबूझ पहेली हैं।

नोबेल पुरस्कार विजेता पॉल नर्से ने कोशिका के पूरे जीवन चक्र को चरणबद्ध किया है। इस जानकारी के बाद किन्हीं खास कोशिकाओं की वृद्धि को किसी खास चरण में रोकने की कोशिश की जा रही है। माना जा रहा है कि इस तरीके से कैंसर की रोगी कोशिकाओं को दवाओं के जरिए एक हद तक रोका जा सकेगा।

इस तरीके से कैंसर का पूरा इलाज भले ही अभी संभव न हो लेकिन मरीज की उम्र बढ़ाने का रास्ता जरूर दिखाई पड़ने लगा है। हालांकि हर प्रकार के कैंसर का पुख्ता इलाज ढ़ूढना वैज्ञानिकों के लिए अब भी एक कड़ी चुनौती है।

Sunday, May 18, 2008

कैंसर की दुनिया का आतंकवादी पत्ता: तंबाकू

शाकाहार और मांसाहार पर बहस लंबी चल सकती है लेकिन एक शाकाहार, बल्कि पत्ता है जिसका सेवन किसी भी रूप में कैंसरकारी है। यह मेरी पिछली पोस्ट का विरोधाभास लग सकता है लेकिन तंबाकू के बारे में यही सच है।

मुंह का कैंसर उन गिने-चुने कैंसरों में से है जिन्हें पूरी तरह रोका जा सकता है। यह ज्यादातर बाहरी कारणों से ही होता है जिनकी लगभग पूरी फेहरिस्त डॉक्टरों के पास है। अफसोस की बात है कि जानकारी की कमी से मुंह के कैंसर के मामले हमारे देश में लगातार बढ़ रहे हैं। योरोप और अमरीका में मुंह का कैंसर कुल मामलों में से 4-5 फीसदी है तो हिंदुस्तान में यह 45 फीसदी से ज्यादा। इनमें से 90 फीसदी से ज्यादा मामलों में कारण तंबाकू और उससे बने उत्पाद हैं।

यह स्थापित हो चुका है कि तंबाकू का लंबे समय तक सेवन कैंसर को खुला निमंत्रण है। पान मसाला जो तंबाकू सेवन का सबसे नया और तेजी से लोकप्रिय होता रूप है, सबसे ज्यादा कैंसरकारी साबित हुआ है। कुछ समय पहले गुजरात के एक कैंसर अस्पताल में 25 वर्ष तक की उम्र के युवाओं में मुंह के कैंसर का सर्वे किया गया। पता चला कि उनमें से हर पांच में से तीन पान मसाला खाने के आदी थे। उनमें से कुछ ने चार या पांच साल पहले पान मसाला खाना शुरू किया था तो कुछ को दो साल के व्यसन ने ही बीमार बना दिया।

तंबाकू में 45 तरह के कैंसरकारी तत्व पाए गए हैं। पान मसाला बनाने के लिए जब इसमें स्वाद और सुगंध के लिए दूसरी चीजें मिलाई जाती हैं तो उसमें कार्सिनोजेन्स की संख्या कई दहाइयों में बढ़ जाती है। दरअसल ये रसायन मुंह की नाजुक त्वचा को लगातार चोट पहुंचाते रहते हैं और कोशिकाओं के सामान्य विकास में रुकावट डालते हैं। ये व्यथित कोशिकाएं खुद में कुछ बदलाव लाकर उन पदार्थों के बुरे असर से बचने की कोशिश करती हैं। यह बदलाव ही उनके लिए मारक साबित होता है। बदलाव के बाद बनी कोशिकाओं का विकास, जाहिर है, असामान्य और अनियंत्रित होता है।
इस तरह बनी गांठ में कैंसर होने की संभावना होती है जो इलाज में देर होने पर फेफड़ों, जिगर, हड्डियों और शरीर के दूसरे हिस्सों में फैल कर जानलेवा हो जाता है।
सिगरेट, पान, तंबाकू, पान मसाला के अलावा पोषण में कमी, टेढ़े या नुकीले दांतों या गालों की भीतरी नरम चमड़ी को चबाने की आदत के कारण भी मुंह का कैंसर हो सकता है। लेकिन गले या श्वासनली के कैंसर का कारण अनिवार्यत: धूम्रपान और शराब ही है।

मुंह के कैंसर के लक्षण कैंसर होने के काफी पहले ही दिखने लगते हैं। इसलिए उन्हें पहचान कर अगर इलाज कराया जाए और तंबाकू सेवन छोड़ने जैसे उपाय किए जाएं तो इससे बचा भी जा सकता है। मुंह के भीतर कहीं भी- मसूढ़ों, जीभ, तालु, होंठ, गाल, गले के पास लाल या सफेद चकत्ते या दाग दिखें तो सचेत हो जाना चाहिए। इसके अलावा आवाज में बदलाव, लगातार खांसी, निगलने में तकलीफ, गले में खराश, कोई बेवजह हुआ घाव जो ठीक न हो रहा हो जैसे बदलावों पर भी ध्यान देना चाहिए। खूब फल-सब्जियां और अंकुरित अनाज तो हैं ही ऐंटी-ऑक्सिडेंट और विटामिनों के भंडार जो हमारी उपापचय प्रणाली में आजाद घूम रहे कैंसरकारी तत्वों की बेजा हरकतों पर लगाम लगाते हैं।

दुनिया भर में मुंह के कैंसर का प्राथमिक कारण तंबाकू और शराब ही हैं। अगर यह खत्म हो जाए तो मुंह का कैंसर भी लगभग पूरी तरह खत्म हो जाएगा।

Friday, May 16, 2008

शाकाहार बनाम मांसाहार: कैंसर के बर-अक्स

खान-पान संबंधी पिछली पोस्ट पर एक टिप्पणी में स्वप्नदर्शी ने कहा- "मेरी जानकारी मे संतुलित आहार मे मांस का होना अच्छा है और मांस खाने का कैंसर से कोई सीधा सम्बन्ध नही है।"

नीचे लिखे कुछ तथ्यों पर नजर डालें-

कुछ वैज्ञानिक अध्ययन:

* जर्मनी में 11 साल तक चले एक अध्ययन में पाया गया कि शाकाहारी भोजन खाने वाले 800 लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। कैंसर होने की दर सबसे कम उन लोगों में थी जिन्होंने 20 साल से मांसाहार नहीं खाया था। जापान और स्वीडन में भी सर्वेक्षणों के मिलते-जुलते नतीजे मिले।

*ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में 2007 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 35 हजार महिलाओं पर अपने 7 साल लंबे अध्ययन में पाया गया कि ज्यादा मांस खाने वालों के मुकाबले कम मांस खाने वाली महिलाओं को स्तन कैंसर की संभावना कम होती है। जिन बूढ़ी महिलाओं ने औसतर 50 ग्राम मांस हर दिन खाया, उन्हें, मांस न खाने वालों के मुकाबले स्तन कैंसर का खतरा 56 फीसदी ज्यादा था।

* 34 हजार अमरीकियों पर हुए एक अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि मांसाहार छोड़ने वालों को प्रोस्टेट, अंडाषय और मलाशय (कोलोन) का कैंसर का खतरा नाटकीय ढ़ंग से कम हो गया।

* 2006 अमेरिकन जर्नल ऑफ क्लीनिकल न्यूट्रीशन में प्रकाशित हार्वर्ड के अध्ययन में शामिल 1, 35,000 लोगों में से जिन्होंने अक्सर ग्रिल्ड चिकन खाया, उन्हें मूत्राशय का कैंसर होने का खतरा 52 फीसदी तक बढ़ गया।

शाकाहार किस तरह कैंसर के लिए उपयुक्त स्थियों को दूर रखता है:

* मांस में सैचुरेटेड फैट अधिक होता है जो शरीर में कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाता है। (चर्बी निकाले हुए चिकेन से भी, मिलने वाली ऊर्जा की कम से कम आधी मात्रा चर्बी से ही आती है।) चिकेन और कोलेस्ट्रॉल शरीर में ईस्ट्रोजन हार्मोन को बढ़ाता है जो कि स्तन कैंसर से सीधा संबंधित है। जबकि शाकाहार में मौजूद रेशे शरीर में ईस्ट्रोजन के स्तर को नियंत्रित रखते हैं।

* मांस को हजम करने में ज्यादा पाचक एंजाइम और समय लगते हैं। ज्यादा देर तक अनपचा खाना पेट में अम्ल और दूसरे जहरीले रसायन बनाता है जिससे कैंसर को बढ़ावा मिलता है।

* इसके अलावा मांस- मुर्गे का उत्पादन बढ़ाने के लिए आजकल हार्मोन, डायॉक्सिन, एंटीबायोटिक, कीटनाशकों, भारी धातुओं का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है जो कैसर को बढ़ावा देते हैं। इसे ऐसे समझें कि थोड़ी सी जगह में ढेरों मुर्गों को पालने से वे एक-दूसरे से कई तरह की बीमारियां लेते रहते हैं। ऐसे हालात में उन्हें जिलाए रखने के लिए उन्हें खूब एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं जिनमें आर्सेनिक जैसी कैंसरकारी भारी धातुएं भी होती हैं।

* मांस-मुर्गे में मौजूद परजीवी और सूक्ष्म जीव कुछ तो पकाने पर मर जाते हैं और कुछ हमारे शरीर में बढ़ने लगते हैं और कैंसर और दूसरी बीमारियां पैदा करते हैं, हमारी प्रतिरोधक क्षमता को थका देते हैं। ऐसे में शरीर कैंसर से लड़ने और जीतने में नाकाम हो जाता है।

* शाकाहार में मौजूद रेशे बैक्टीरिया से मिलकर ब्यूटिरेट जैसे रसायन बनाते हैं जो कैंसर कोषा को मरने के लिए प्रेरित करते हैं। दूसरे, रेशों में पानी सोख कर मल का वजन बढ़ाने की क्षमता होती है जिससे जल्दी-जल्दी शौच जाने की जरूरत पड़ती है और मल और उसके रसायन ज्यादा समय तक खाने की नली के संपर्क में नहीं रह पाते।

* खूब फल और सब्जियां खाने से मुंह, ईसोफेगस, पेट और फेफड़ों के कैंसर की संभावना आधी हो सकती है।

फलों और सब्जियों में एंटी ऑक्सीडेंट की प्रचुर मात्रा होते हैं जो शरीर में कैंसर पैदा करने वाले रसायनों को पकड़ कर उन्हें 'आत्महत्या' के लिए प्रेरित करते हैं।

* शाकाहार में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और इस तरह कैंसर कोषाएं फल-फूल नहीं पातीं।

* शाकाहार जरूरी लवणों का भी भंडार है।

Monday, May 12, 2008

खाने और खोने का संबंध

पिछली एक पोस्ट पर टिप्पणी में पद्मावती ने बड़े पते की बात कही -

" इस ब्लॉग के जरिए जो फायदा में सबसे ज्यादा देख रही हूं- युवा वर्ग के खान-पान और लाइफ स्टाइल का सही होना, जो कि बुरी तरह से बिगड़ता जा रहा है। हम बड़े भी (या ही?) जिम्मेदार हैं। स्कूल की कैंटीन से लेकर शॉपिंग और मूवी प्रेग्राम का अंत चटपटा खाने से होता है। मुझे याद है मेरी मां ऐसे किसी प्रोग्राम के दिन खाने की पूरी तैयारी करके जाती थी। खोमचे वाले पर हमारी नजर पड़ते ही कहतीं- घर में कोफ्ते बने हैं। और बस, हम सब घर चल पड़ते। हमारी जिम्मेदारी है बच्चों को सही खानपान और रहन-सहन के तरीके सिखाने की।"

तो आज इसी मुद्दे पर बात आगे बढ़ाते हैं। आखिर हम खाना खाते ही क्यों हैं, हम जो खाते हैं उसका क्या होता है और खाने का कैंसर से क्या रिश्ता है। हर इंसान एक साल में औसतन 500 किलोग्राम खाना खाता है यानी हर दिन कोई सवा किलोग्राम। यह खाना हमारे शरीर की बढ़त में, कहीं टूट-फूट हो तो उसकी मरम्मत में और दिन भर के कामों में शरीर को चालू रखने के लिए ईंधन के तौर पर काम आता है। बढ़त औत चोट भरने के लिए प्रोटीन ज्यादा काम आता है और ईंधन के तौर पर ज्यादा कैलोरी वाले खाद्य पदार्थ - वसा, चीनी यानी फैट और कार्बोहाइड्रेट।


हम जो भी खाते हैं, वह पेट में हज़म होकर ऊर्जा बनाता है। जरूरत से ज्यादा ऊर्जा शरीर में रह नहीं सकती इसलिए शरीर अतिरिक्त कार्बोहाइड्रेट को फैट में बदलकर आड़े वक्त के लिए बचा कर कई जगहों पर जमा करके रख देता है। यही होती है चर्बी या मोटापा।

खाने में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और चर्बी के अलावा रेशे, अनेक विटामिन, लवण जैसे कई हिस्से होते हैं जिनकी क्रियाएं आपस में संबंधित और एक-दूसरे पर निर्भर हैं। इनकी गतिविधियां कोशिकाओं के भीतर रासायनिक क्रियाओं के रूप में होती हैं और कैंसर भी कोशिका के भीतर रासायनिक गड़बड़ियों से पैदा होने वाली बीमारी है। यानी खान-पान का हमारे शरीर में कैंसर होने से सीधा संबंध है।

अनुमान है कि विभिन्न कैंसरों से होने वाली 30 फीसदी मौतों को लगातार सेहतमंद खान-पान के जरिए रोका जा सकता है। लेकिन फिर ध्यान दिला दूं, कैंसर हो जाने के बाद सिर्फ सुधरे खान-पान के जरिए इसे ठीक नहीं किया जा सकता। इंटरनैशनल यूनियन अगेन्स्ट कैंसर (यू आई सी सी) ने अध्ययनों में पाया कि एक ही जगह पर रहने वाले अलग खान-पान की आदतों वाले समुदायों में कैंसर होने की संभावनाएं अलग-अलग होती हैं। उनकी खासियत का संबंध कैंसर के प्रकार से भी होता है। ज्यादा चर्बी खाने वाले समुदायों में स्तन, प्रोस्टेट, वृहदांत्र (कोलोन) और मलाशय (रेक्टम) के कैंसर ज्यादा होते हैं।

खाने की सामग्री में शामिल खाद्य तत्वों के अलावा बाहरी तत्व, जैसे- प्रिजर्वेटिव और कीटनाशक रसायन, उसे पकाने का तरीका यानी जलाकर ((ग्रिल करके), तेज आंच पर देर तक पकाना आदि, और उसमें पैदा हुए फफूंद या जीवाणु यानी बासीपन आदि भी कैंसर को बढ़ावा देते हैं।

यानी खाद्य सुरक्षा और खाने की सुरक्षा दोनों का ही कैंसर की संभावना से गहरा संबंध है। विकसित देशों में अतिपोषण की समस्या है जबकि विकासशील देशों में कुपोषण की जब जरूरी पोषक तत्वों की कमी से शरीर किसी बीमारी से लड़ने में पूरी तरह सक्षम नहीं होता। यह स्थिति शरीर को ज्यादा कैंसर प्रवण बना देती है।
यू आई सी सी की गाइडलाइंस के मुताबिक-


1. जीवन भर पेड़-पौधों से बना विविधता भरा, रेशेदार खाना- फल, सब्जियां, अनाज खाइये।

2. चर्बी वाली खाने की चीजों से परहेज करिए। मांस, तला हुआ खाना या ऊपर से घी-तेल लेने से बचना चाहिए।

3. शराब का सेवन करना हो तो सीमित हो।

4. खाना इस तरह पकाया और संरक्षित किया जाए कि उसमें कैंसरकारी तत्व, फफूंद, जीवाणु न पैदा हो सकें।

5. खाना बनाते और खाते समय अतिरिक्त नमक डालने से बचें।

6. शरीर का वज़न सामान्य से बहुत ज्यादा या कम न हो, इसके लिए खाने और कैलोरी खर्च करने में संतुलन हो। ज्यादा कैलोरी वाली चीजें कम मात्रा में खाएं, नियमित कसरत करें।

7. विटामिन और मिनरल की गोलियां संतुलित और परिपूर्ण भोजन का विकल्प कभी नहीं हो सकतीं। विटामिन और मिनरल की प्रचुरता वाले विविध खाद्य पदार्थ ही इस जरूरत को पूरा कर सकते हैं।

8. इन सबके साथ पर्यावरण से कैंसरकारी जहरीले पदार्थों को हटाने, कैंसर की जल्द पहचान, तंबाकू का सेवन किसी भी रूप में पूरी तरह खत्म करने, दर्द निवारक और दूसरी दवाइयां खुद ही, बेवजह खाते रहने की आदत छोड़ने जैसे अभियानों की भी सख्त जरूरत है, अगर हम कैंसर से बचना चाहते हैं।

Thursday, May 8, 2008

UNDERSTANDING CANCER

Cancer begins in cells, the building blocks that make up tissues. Tissues make up the organs of the body. Normally cells grow and divide to form new cells as the body needs them. When cells grow, they die and new cells take their place.


Sometimes this orderly process goes wrong. New cells form when the body does not need them and old or weak cells do not die when they should. These extra cells can form a mass of tissues called a growth or tumor.

Not all tumors are cancer. Tumors can be benign or malignant.

Wednesday, May 7, 2008

कैंसर क्या नहीं है-

‘कैंसर’... नाम सुनकर आम तौर पर लोगों के मन में कई तरह के ख्याल आते हैं। ज्यादातर लोग इसे जान लेने वाली, कष्टदायक, खर्चीले और लंबे इलाज वाली बीमारी के रूप में जानते हैं। इनमें से कुछ बातें काफी हद तक सच भी हैं। फिर भी आम तौर पर इसके बारे में जानकारी का स्तर इससे ऊपर नहीं होता। कैंसर क्या है, इस बारे में चर्चा बाद में करेंगे। पहले जान लें कि कैंसर के बारे में क्या और कितनी गलतफहमियां लोगों में फैली हुई हैं।


कैंसर क्या नहीं है-


• कैंसर छूत की बीमारी नहीं है जो मरीज को छूने, उसके पास जाने या उसका सामान इस्तेमाल करने से हो सकती है।

• कैंसर के मरीज का खून या शरीर की कोई चोट या घाव छूने से कैंसर नहीं होता।

• कैंसर मधुमेह और उच्च रक्तचाप की तरह शरीर में खुद ही पैदा होने वाली बीमारी है, किसी रोगाणु के संक्रमण से होने वाली नहीं।

• बच्चे को स्तनपान कराने से स्तन कैंसर होता हो, ऐसा नहीं है।

• चोट या धक्का लगने से स्तन कैंसर नहीं होता। बल्कि कई बार चोट लगने पर इसकी तरफ ध्यान जाता है और इसका पता लगता है।

• कैंसर असाध्य नहीं है और न ही इससे मरना जरूरी है। जल्दी पता लगने और इलाज कराने पर यह ठीक हो सकता है। कैंसर के बाद भी सामान्य जीवन जिया जा सकता है।

• मुझे कैंसर नहीं हो सकता- यह ख्याल छोड़ दीजिए। यह मोटे-पतले, छोटे-बड़े, गोरे-काले, अमीर-गरीब सभी को हो सकता है।

• 20 साल की उम्र से लेकर मृत्यु की चौखट पर खड़ी किसी बूढ़ी महिला तक किसी भी उम्र की महिला को स्तन कैंसर हो सकता है।

• स्तन कैंसर पुरुषों को भी होता है। 200 में से एक स्तन कैंसर का मरीज पुरुष हो सकता है।

• खान-पान और जीवनचर्या में सकारात्मक बदलाव करके कैंसर होने की संभावना को कम किया जा सकता है। लेकिन एक बार कैंसर हो जाने के बाद उसे इस तरह ठीक नहीं किया जा सकता। इसका प्रामाणिक इलाज ऐलोपैथी ही है।

• कैंसर दिनों या महीनों में नहीं होता। आम तौर पर इसकी गांठ बनने और किसी अंग में जम कर बैठने और विकसित होने में बरसों लगते है। जबकि इसका पता हमें बहुत बाद में लगता है।

• ज्यादातर (100 में से 93) मामलों में स्तन कैंसर वंशानुगत यानी खानदानी बीमारी नहीं है। अनेक सहायक कारक मिल कर कैंसर की स्थितियां पैदा करते हैं।

• वैसे तो स्तन की 90 फीसदी गांठें कैंसररहित होती हैं, सिर्फ 10 फीसदी गांठों में कैंसर की संभावना होती है। फिर भी हर गांठ की फौरन जांच करानी चाहिए।

• ज्यादातर मामलों में कैंसर की शुरुआत में दर्द बिल्कुल नहीं होता।

Tuesday, May 6, 2008

शुरुआत से पहले




मैं जैसे एक बहाव के साथ बहती जा रही थी। नहीं जानती थी कि यह कहां ले जाएगा। अचानक आई एक कठोर चट्टान से टकराकर मैने चोट खाई। दर्द से कराह कर मैंने उस चट्टान को बद्दुआएं दीं। तभी मुझे होश आया। सिर उठा कर देखा तो दुनिया नई थी। होश आया तो जाना कि यूं ही बहते हुए खत्म हो जाना तो कोई बात नहीं। बहना ही मेरी नियति तो नहीं। शुक्रिया उस चट्टान का जो जाने कितनी बद्दुआओं का बोझ संभाले जाने कब से उस बहाव के बीच स्थिर खड़ी है। बेहोश और नशे की रौ में दिशाहीन हो बहाव के साथ बहते जा रहे लोगों को जगाती, संभालती और सही राह बताती। आशाओं के इंद्रधनुष दिखाती।

उम्मीदों के इस इंद्रधनुष के पीछे चलते जाना होता है, सभी को। इसके हल्के-गहरे, धुंधले-उजले, छुपते-खिलते रंगों में से कोई अंधियारा रंग किसी वक्त आपको ढक लेता है, तो कोई सलेटी आपके सामने अड़ जाता है बेमानी ज़िद सा। कभी कोई अलमस्त रंग अपनी अलग-अलग छटाओं से आपको सजा देता है तो कोई रूमानी-सा हल्के-से आपका हाथ थामे साथ खड़ा हो जाता है अपनी गर्व भरी धज के साथ। इंद्रधनुष के इन रंगों से बचकर कोई निकल सका है भला?
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