Tuesday, May 6, 2008

शुरुआत से पहले




मैं जैसे एक बहाव के साथ बहती जा रही थी। नहीं जानती थी कि यह कहां ले जाएगा। अचानक आई एक कठोर चट्टान से टकराकर मैने चोट खाई। दर्द से कराह कर मैंने उस चट्टान को बद्दुआएं दीं। तभी मुझे होश आया। सिर उठा कर देखा तो दुनिया नई थी। होश आया तो जाना कि यूं ही बहते हुए खत्म हो जाना तो कोई बात नहीं। बहना ही मेरी नियति तो नहीं। शुक्रिया उस चट्टान का जो जाने कितनी बद्दुआओं का बोझ संभाले जाने कब से उस बहाव के बीच स्थिर खड़ी है। बेहोश और नशे की रौ में दिशाहीन हो बहाव के साथ बहते जा रहे लोगों को जगाती, संभालती और सही राह बताती। आशाओं के इंद्रधनुष दिखाती।

उम्मीदों के इस इंद्रधनुष के पीछे चलते जाना होता है, सभी को। इसके हल्के-गहरे, धुंधले-उजले, छुपते-खिलते रंगों में से कोई अंधियारा रंग किसी वक्त आपको ढक लेता है, तो कोई सलेटी आपके सामने अड़ जाता है बेमानी ज़िद सा। कभी कोई अलमस्त रंग अपनी अलग-अलग छटाओं से आपको सजा देता है तो कोई रूमानी-सा हल्के-से आपका हाथ थामे साथ खड़ा हो जाता है अपनी गर्व भरी धज के साथ। इंद्रधनुष के इन रंगों से बचकर कोई निकल सका है भला?

1 comment:

Anonymous said...

Good.
You may include health insurance and other types of measures to offset the financial effects of such a life threatening desease.

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