Thursday, May 22, 2008

कैंसर क्या है- एक अरब आवारा कोशिकाएं

कैंसर क्या नहीं है इस पर चर्चा होने के बाद जरूरी हो जाता है कि जाने, कैंसर क्या है। थोड़ी-बहुत पढ़ाई में मैंने जाना कि कैंसर दरअसल कुछ अधूरी कोशिकाओं का समूह है जो शरीर में कहीं भी बनकर बढ़ता है। इसकी शुरुआत एक कोशिका से होती है जो किन्हीं चयापचयिक (मेटाबॉलिक) कारणों से अचानक ही असंयमित व्यवहार करने लगती है। असामान्य तेजी से विभाजित होकर अपने जैसी बीमार कोशिकाओं का ढेर बना देने वाली इस कोशिका से ट्यूमर बनने में बरसों, कई बार तो दशकों लग जाते हैं। जब कम से कम एक अरब ऐसी कोशिकाएं इकट्ठा होती हैं तभी वह ट्यूमर पहचानने लायक आकार में आता है।


एक सामान्य कोशिका का कैंसरयुक्त कोशिका में बदलना
एक सामान्य सी लगने वाली कोशिका अपने विकास के किसी दौर में अचानक दिशाहीन क्यों हो जाती है, इस रहस्य को समझने में वैज्ञानिकों को बरसों लग गए। दरअसल हर कोशिका में निर्धारित संख्या में जीन होते हैं जो इसकी हर गतिविधि को निर्देशित करते हैं। इन्हीं में से कुछ जीन यह तय करते हैं कि कोशिका कब विभाजित हो और कब नहीं। इन्हें ऑन्कोजीन और ट्यूमर सप्रेसर जीन कहते हैं। जब इन जीनों की बनावट में कोई गड़बड़ी आती है तो इनसे कोशिका को उलटे-पुलटे निर्देश मिलने लगते हैं और उसी के अनुसार कोशिका में अनियमित और अनियंत्रित विभाजन शुरू हो जाता है।

वैज्ञानिकों ने बीसी-10 नाम का एक जीन खोजा है जो मूल रूप से एक पहरेदार का काम करता है और कोशिका के जरा बहकते ही उसे नष्ट कर देता है। लेकिन जब इसी जीन में गड़बड़ी आ जाती है तो वह कोशिका लक्ष्यहीन हो जाती है।
यह जानना दिलचस्प है कि हर कोशिका, चाहे वह कैंसर-युक्त हो या नहीं, अपने भीतर मृत्यु की कुंजी साथ लिए चलती है जिसे उत्तेजित किया जाए तो वह अपनी तरह की बाकी हमउम्र कोशिकाओं से जल्दी मर जाएगी। कोशिका में मौजूद आत्महत्या की इस मशीनरी को एपोप्टोसिस कहा जाता है।


एपोप्टोसिस यानी कोशिका करे आत्महत्या


एपोप्टोसिस कई आपस में संबंधित चरणों की एक श्रृंखला है। इसके शुरुआती बिंदु को छेड़ने भर की देर है और इसमें शामिल सभी प्रोटीन अपने आप क्रमश: सक्रिय हो जाते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे एक-दूसरे पर टिके ताश के पत्तों में से किनारे वाले पत्ते को छूते ही बाकी सभी पत्ते एक-के-बाद-एक उस पर गिरते जाते हैं।

कोशिकाओं की इस प्रवृत्ति का इस्तेमाल कई मौकों पर होता है। जैसे, शुरुआती समय में भ्रूण की अंगुलियों के बीच घना जाल मौजूद होता है। बाद में इस जाल की कोशिकाओं में एपोप्टोसिस की प्रक्रिया शुरू होती है और ये जाल नष्ट हो जाता है। शुरुआती अवस्था में कैंसर के खिलाफ शरीर भी इसी हथियार का इस्तेमाल करता है। जैसे ही कोई कोशिका असामान्य व्यवहार करने लगती है, उसमें मौजूद प्रहरी जीन किसी अज्ञात प्रक्रिया से उसे भांप लेता है और सदा सजग रहने वाली एपोप्टोसिस को सक्रिय होने का इशारा कर देता है। यह कैंसर के खिलाफ शरीर का पहला और सबसे जबर्दस्त युद्ध है।

वास्तव में हर व्यक्ति के जीवन क्रम में साधारण कैंसर के लाखों बेहद छोटे-छोटे ट्यूमर बनते और एपोप्टोसिस के जरिए खत्म भी होते रहते हैं। लेकिन कभी-कभार एकाध रोगी कोशिका अपने में कुछ बदलाव लाकर आत्महत्या की इस प्रक्रिया से बच निकलने में कामयाब हो जाती है और अपने जैसी असामान्य कोशिकाएं बनाना शुरू कर देती है। ये ही आखिर कैंसर के रूप में हमारे सामने आती हैं। यानी इस मौके पर जिंदगी और मौत के तराजू में कैंसर कोशिका की जिंदगी का पलड़ा ज्यादा भारी होता है। कैंसर को कोशिका के भीतर मौजूद अणुओं के स्तर तक जानने के बाद भी कैंसर की घटना के कई पहलू वैज्ञानिकों के लिए अबूझ पहेली हैं।

नोबेल पुरस्कार विजेता पॉल नर्से ने कोशिका के पूरे जीवन चक्र को चरणबद्ध किया है। इस जानकारी के बाद किन्हीं खास कोशिकाओं की वृद्धि को किसी खास चरण में रोकने की कोशिश की जा रही है। माना जा रहा है कि इस तरीके से कैंसर की रोगी कोशिकाओं को दवाओं के जरिए एक हद तक रोका जा सकेगा।

इस तरीके से कैंसर का पूरा इलाज भले ही अभी संभव न हो लेकिन मरीज की उम्र बढ़ाने का रास्ता जरूर दिखाई पड़ने लगा है। हालांकि हर प्रकार के कैंसर का पुख्ता इलाज ढ़ूढना वैज्ञानिकों के लिए अब भी एक कड़ी चुनौती है।

Sunday, May 18, 2008

कैंसर की दुनिया का आतंकवादी पत्ता: तंबाकू

शाकाहार और मांसाहार पर बहस लंबी चल सकती है लेकिन एक शाकाहार, बल्कि पत्ता है जिसका सेवन किसी भी रूप में कैंसरकारी है। यह मेरी पिछली पोस्ट का विरोधाभास लग सकता है लेकिन तंबाकू के बारे में यही सच है।

मुंह का कैंसर उन गिने-चुने कैंसरों में से है जिन्हें पूरी तरह रोका जा सकता है। यह ज्यादातर बाहरी कारणों से ही होता है जिनकी लगभग पूरी फेहरिस्त डॉक्टरों के पास है। अफसोस की बात है कि जानकारी की कमी से मुंह के कैंसर के मामले हमारे देश में लगातार बढ़ रहे हैं। योरोप और अमरीका में मुंह का कैंसर कुल मामलों में से 4-5 फीसदी है तो हिंदुस्तान में यह 45 फीसदी से ज्यादा। इनमें से 90 फीसदी से ज्यादा मामलों में कारण तंबाकू और उससे बने उत्पाद हैं।

यह स्थापित हो चुका है कि तंबाकू का लंबे समय तक सेवन कैंसर को खुला निमंत्रण है। पान मसाला जो तंबाकू सेवन का सबसे नया और तेजी से लोकप्रिय होता रूप है, सबसे ज्यादा कैंसरकारी साबित हुआ है। कुछ समय पहले गुजरात के एक कैंसर अस्पताल में 25 वर्ष तक की उम्र के युवाओं में मुंह के कैंसर का सर्वे किया गया। पता चला कि उनमें से हर पांच में से तीन पान मसाला खाने के आदी थे। उनमें से कुछ ने चार या पांच साल पहले पान मसाला खाना शुरू किया था तो कुछ को दो साल के व्यसन ने ही बीमार बना दिया।

तंबाकू में 45 तरह के कैंसरकारी तत्व पाए गए हैं। पान मसाला बनाने के लिए जब इसमें स्वाद और सुगंध के लिए दूसरी चीजें मिलाई जाती हैं तो उसमें कार्सिनोजेन्स की संख्या कई दहाइयों में बढ़ जाती है। दरअसल ये रसायन मुंह की नाजुक त्वचा को लगातार चोट पहुंचाते रहते हैं और कोशिकाओं के सामान्य विकास में रुकावट डालते हैं। ये व्यथित कोशिकाएं खुद में कुछ बदलाव लाकर उन पदार्थों के बुरे असर से बचने की कोशिश करती हैं। यह बदलाव ही उनके लिए मारक साबित होता है। बदलाव के बाद बनी कोशिकाओं का विकास, जाहिर है, असामान्य और अनियंत्रित होता है।
इस तरह बनी गांठ में कैंसर होने की संभावना होती है जो इलाज में देर होने पर फेफड़ों, जिगर, हड्डियों और शरीर के दूसरे हिस्सों में फैल कर जानलेवा हो जाता है।
सिगरेट, पान, तंबाकू, पान मसाला के अलावा पोषण में कमी, टेढ़े या नुकीले दांतों या गालों की भीतरी नरम चमड़ी को चबाने की आदत के कारण भी मुंह का कैंसर हो सकता है। लेकिन गले या श्वासनली के कैंसर का कारण अनिवार्यत: धूम्रपान और शराब ही है।

मुंह के कैंसर के लक्षण कैंसर होने के काफी पहले ही दिखने लगते हैं। इसलिए उन्हें पहचान कर अगर इलाज कराया जाए और तंबाकू सेवन छोड़ने जैसे उपाय किए जाएं तो इससे बचा भी जा सकता है। मुंह के भीतर कहीं भी- मसूढ़ों, जीभ, तालु, होंठ, गाल, गले के पास लाल या सफेद चकत्ते या दाग दिखें तो सचेत हो जाना चाहिए। इसके अलावा आवाज में बदलाव, लगातार खांसी, निगलने में तकलीफ, गले में खराश, कोई बेवजह हुआ घाव जो ठीक न हो रहा हो जैसे बदलावों पर भी ध्यान देना चाहिए। खूब फल-सब्जियां और अंकुरित अनाज तो हैं ही ऐंटी-ऑक्सिडेंट और विटामिनों के भंडार जो हमारी उपापचय प्रणाली में आजाद घूम रहे कैंसरकारी तत्वों की बेजा हरकतों पर लगाम लगाते हैं।

दुनिया भर में मुंह के कैंसर का प्राथमिक कारण तंबाकू और शराब ही हैं। अगर यह खत्म हो जाए तो मुंह का कैंसर भी लगभग पूरी तरह खत्म हो जाएगा।

Friday, May 16, 2008

शाकाहार बनाम मांसाहार: कैंसर के बर-अक्स

खान-पान संबंधी पिछली पोस्ट पर एक टिप्पणी में स्वप्नदर्शी ने कहा- "मेरी जानकारी मे संतुलित आहार मे मांस का होना अच्छा है और मांस खाने का कैंसर से कोई सीधा सम्बन्ध नही है।"

नीचे लिखे कुछ तथ्यों पर नजर डालें-

कुछ वैज्ञानिक अध्ययन:

* जर्मनी में 11 साल तक चले एक अध्ययन में पाया गया कि शाकाहारी भोजन खाने वाले 800 लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। कैंसर होने की दर सबसे कम उन लोगों में थी जिन्होंने 20 साल से मांसाहार नहीं खाया था। जापान और स्वीडन में भी सर्वेक्षणों के मिलते-जुलते नतीजे मिले।

*ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में 2007 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 35 हजार महिलाओं पर अपने 7 साल लंबे अध्ययन में पाया गया कि ज्यादा मांस खाने वालों के मुकाबले कम मांस खाने वाली महिलाओं को स्तन कैंसर की संभावना कम होती है। जिन बूढ़ी महिलाओं ने औसतर 50 ग्राम मांस हर दिन खाया, उन्हें, मांस न खाने वालों के मुकाबले स्तन कैंसर का खतरा 56 फीसदी ज्यादा था।

* 34 हजार अमरीकियों पर हुए एक अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि मांसाहार छोड़ने वालों को प्रोस्टेट, अंडाषय और मलाशय (कोलोन) का कैंसर का खतरा नाटकीय ढ़ंग से कम हो गया।

* 2006 अमेरिकन जर्नल ऑफ क्लीनिकल न्यूट्रीशन में प्रकाशित हार्वर्ड के अध्ययन में शामिल 1, 35,000 लोगों में से जिन्होंने अक्सर ग्रिल्ड चिकन खाया, उन्हें मूत्राशय का कैंसर होने का खतरा 52 फीसदी तक बढ़ गया।

शाकाहार किस तरह कैंसर के लिए उपयुक्त स्थियों को दूर रखता है:

* मांस में सैचुरेटेड फैट अधिक होता है जो शरीर में कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाता है। (चर्बी निकाले हुए चिकेन से भी, मिलने वाली ऊर्जा की कम से कम आधी मात्रा चर्बी से ही आती है।) चिकेन और कोलेस्ट्रॉल शरीर में ईस्ट्रोजन हार्मोन को बढ़ाता है जो कि स्तन कैंसर से सीधा संबंधित है। जबकि शाकाहार में मौजूद रेशे शरीर में ईस्ट्रोजन के स्तर को नियंत्रित रखते हैं।

* मांस को हजम करने में ज्यादा पाचक एंजाइम और समय लगते हैं। ज्यादा देर तक अनपचा खाना पेट में अम्ल और दूसरे जहरीले रसायन बनाता है जिससे कैंसर को बढ़ावा मिलता है।

* इसके अलावा मांस- मुर्गे का उत्पादन बढ़ाने के लिए आजकल हार्मोन, डायॉक्सिन, एंटीबायोटिक, कीटनाशकों, भारी धातुओं का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है जो कैसर को बढ़ावा देते हैं। इसे ऐसे समझें कि थोड़ी सी जगह में ढेरों मुर्गों को पालने से वे एक-दूसरे से कई तरह की बीमारियां लेते रहते हैं। ऐसे हालात में उन्हें जिलाए रखने के लिए उन्हें खूब एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं जिनमें आर्सेनिक जैसी कैंसरकारी भारी धातुएं भी होती हैं।

* मांस-मुर्गे में मौजूद परजीवी और सूक्ष्म जीव कुछ तो पकाने पर मर जाते हैं और कुछ हमारे शरीर में बढ़ने लगते हैं और कैंसर और दूसरी बीमारियां पैदा करते हैं, हमारी प्रतिरोधक क्षमता को थका देते हैं। ऐसे में शरीर कैंसर से लड़ने और जीतने में नाकाम हो जाता है।

* शाकाहार में मौजूद रेशे बैक्टीरिया से मिलकर ब्यूटिरेट जैसे रसायन बनाते हैं जो कैंसर कोषा को मरने के लिए प्रेरित करते हैं। दूसरे, रेशों में पानी सोख कर मल का वजन बढ़ाने की क्षमता होती है जिससे जल्दी-जल्दी शौच जाने की जरूरत पड़ती है और मल और उसके रसायन ज्यादा समय तक खाने की नली के संपर्क में नहीं रह पाते।

* खूब फल और सब्जियां खाने से मुंह, ईसोफेगस, पेट और फेफड़ों के कैंसर की संभावना आधी हो सकती है।

फलों और सब्जियों में एंटी ऑक्सीडेंट की प्रचुर मात्रा होते हैं जो शरीर में कैंसर पैदा करने वाले रसायनों को पकड़ कर उन्हें 'आत्महत्या' के लिए प्रेरित करते हैं।

* शाकाहार में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और इस तरह कैंसर कोषाएं फल-फूल नहीं पातीं।

* शाकाहार जरूरी लवणों का भी भंडार है।

Monday, May 12, 2008

खाने और खोने का संबंध

पिछली एक पोस्ट पर टिप्पणी में पद्मावती ने बड़े पते की बात कही -

" इस ब्लॉग के जरिए जो फायदा में सबसे ज्यादा देख रही हूं- युवा वर्ग के खान-पान और लाइफ स्टाइल का सही होना, जो कि बुरी तरह से बिगड़ता जा रहा है। हम बड़े भी (या ही?) जिम्मेदार हैं। स्कूल की कैंटीन से लेकर शॉपिंग और मूवी प्रेग्राम का अंत चटपटा खाने से होता है। मुझे याद है मेरी मां ऐसे किसी प्रोग्राम के दिन खाने की पूरी तैयारी करके जाती थी। खोमचे वाले पर हमारी नजर पड़ते ही कहतीं- घर में कोफ्ते बने हैं। और बस, हम सब घर चल पड़ते। हमारी जिम्मेदारी है बच्चों को सही खानपान और रहन-सहन के तरीके सिखाने की।"

तो आज इसी मुद्दे पर बात आगे बढ़ाते हैं। आखिर हम खाना खाते ही क्यों हैं, हम जो खाते हैं उसका क्या होता है और खाने का कैंसर से क्या रिश्ता है। हर इंसान एक साल में औसतन 500 किलोग्राम खाना खाता है यानी हर दिन कोई सवा किलोग्राम। यह खाना हमारे शरीर की बढ़त में, कहीं टूट-फूट हो तो उसकी मरम्मत में और दिन भर के कामों में शरीर को चालू रखने के लिए ईंधन के तौर पर काम आता है। बढ़त औत चोट भरने के लिए प्रोटीन ज्यादा काम आता है और ईंधन के तौर पर ज्यादा कैलोरी वाले खाद्य पदार्थ - वसा, चीनी यानी फैट और कार्बोहाइड्रेट।


हम जो भी खाते हैं, वह पेट में हज़म होकर ऊर्जा बनाता है। जरूरत से ज्यादा ऊर्जा शरीर में रह नहीं सकती इसलिए शरीर अतिरिक्त कार्बोहाइड्रेट को फैट में बदलकर आड़े वक्त के लिए बचा कर कई जगहों पर जमा करके रख देता है। यही होती है चर्बी या मोटापा।

खाने में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और चर्बी के अलावा रेशे, अनेक विटामिन, लवण जैसे कई हिस्से होते हैं जिनकी क्रियाएं आपस में संबंधित और एक-दूसरे पर निर्भर हैं। इनकी गतिविधियां कोशिकाओं के भीतर रासायनिक क्रियाओं के रूप में होती हैं और कैंसर भी कोशिका के भीतर रासायनिक गड़बड़ियों से पैदा होने वाली बीमारी है। यानी खान-पान का हमारे शरीर में कैंसर होने से सीधा संबंध है।

अनुमान है कि विभिन्न कैंसरों से होने वाली 30 फीसदी मौतों को लगातार सेहतमंद खान-पान के जरिए रोका जा सकता है। लेकिन फिर ध्यान दिला दूं, कैंसर हो जाने के बाद सिर्फ सुधरे खान-पान के जरिए इसे ठीक नहीं किया जा सकता। इंटरनैशनल यूनियन अगेन्स्ट कैंसर (यू आई सी सी) ने अध्ययनों में पाया कि एक ही जगह पर रहने वाले अलग खान-पान की आदतों वाले समुदायों में कैंसर होने की संभावनाएं अलग-अलग होती हैं। उनकी खासियत का संबंध कैंसर के प्रकार से भी होता है। ज्यादा चर्बी खाने वाले समुदायों में स्तन, प्रोस्टेट, वृहदांत्र (कोलोन) और मलाशय (रेक्टम) के कैंसर ज्यादा होते हैं।

खाने की सामग्री में शामिल खाद्य तत्वों के अलावा बाहरी तत्व, जैसे- प्रिजर्वेटिव और कीटनाशक रसायन, उसे पकाने का तरीका यानी जलाकर ((ग्रिल करके), तेज आंच पर देर तक पकाना आदि, और उसमें पैदा हुए फफूंद या जीवाणु यानी बासीपन आदि भी कैंसर को बढ़ावा देते हैं।

यानी खाद्य सुरक्षा और खाने की सुरक्षा दोनों का ही कैंसर की संभावना से गहरा संबंध है। विकसित देशों में अतिपोषण की समस्या है जबकि विकासशील देशों में कुपोषण की जब जरूरी पोषक तत्वों की कमी से शरीर किसी बीमारी से लड़ने में पूरी तरह सक्षम नहीं होता। यह स्थिति शरीर को ज्यादा कैंसर प्रवण बना देती है।
यू आई सी सी की गाइडलाइंस के मुताबिक-


1. जीवन भर पेड़-पौधों से बना विविधता भरा, रेशेदार खाना- फल, सब्जियां, अनाज खाइये।

2. चर्बी वाली खाने की चीजों से परहेज करिए। मांस, तला हुआ खाना या ऊपर से घी-तेल लेने से बचना चाहिए।

3. शराब का सेवन करना हो तो सीमित हो।

4. खाना इस तरह पकाया और संरक्षित किया जाए कि उसमें कैंसरकारी तत्व, फफूंद, जीवाणु न पैदा हो सकें।

5. खाना बनाते और खाते समय अतिरिक्त नमक डालने से बचें।

6. शरीर का वज़न सामान्य से बहुत ज्यादा या कम न हो, इसके लिए खाने और कैलोरी खर्च करने में संतुलन हो। ज्यादा कैलोरी वाली चीजें कम मात्रा में खाएं, नियमित कसरत करें।

7. विटामिन और मिनरल की गोलियां संतुलित और परिपूर्ण भोजन का विकल्प कभी नहीं हो सकतीं। विटामिन और मिनरल की प्रचुरता वाले विविध खाद्य पदार्थ ही इस जरूरत को पूरा कर सकते हैं।

8. इन सबके साथ पर्यावरण से कैंसरकारी जहरीले पदार्थों को हटाने, कैंसर की जल्द पहचान, तंबाकू का सेवन किसी भी रूप में पूरी तरह खत्म करने, दर्द निवारक और दूसरी दवाइयां खुद ही, बेवजह खाते रहने की आदत छोड़ने जैसे अभियानों की भी सख्त जरूरत है, अगर हम कैंसर से बचना चाहते हैं।

Thursday, May 8, 2008

UNDERSTANDING CANCER

Cancer begins in cells, the building blocks that make up tissues. Tissues make up the organs of the body. Normally cells grow and divide to form new cells as the body needs them. When cells grow, they die and new cells take their place.


Sometimes this orderly process goes wrong. New cells form when the body does not need them and old or weak cells do not die when they should. These extra cells can form a mass of tissues called a growth or tumor.

Not all tumors are cancer. Tumors can be benign or malignant.

Wednesday, May 7, 2008

कैंसर क्या नहीं है-

‘कैंसर’... नाम सुनकर आम तौर पर लोगों के मन में कई तरह के ख्याल आते हैं। ज्यादातर लोग इसे जान लेने वाली, कष्टदायक, खर्चीले और लंबे इलाज वाली बीमारी के रूप में जानते हैं। इनमें से कुछ बातें काफी हद तक सच भी हैं। फिर भी आम तौर पर इसके बारे में जानकारी का स्तर इससे ऊपर नहीं होता। कैंसर क्या है, इस बारे में चर्चा बाद में करेंगे। पहले जान लें कि कैंसर के बारे में क्या और कितनी गलतफहमियां लोगों में फैली हुई हैं।


कैंसर क्या नहीं है-


• कैंसर छूत की बीमारी नहीं है जो मरीज को छूने, उसके पास जाने या उसका सामान इस्तेमाल करने से हो सकती है।

• कैंसर के मरीज का खून या शरीर की कोई चोट या घाव छूने से कैंसर नहीं होता।

• कैंसर मधुमेह और उच्च रक्तचाप की तरह शरीर में खुद ही पैदा होने वाली बीमारी है, किसी रोगाणु के संक्रमण से होने वाली नहीं।

• बच्चे को स्तनपान कराने से स्तन कैंसर होता हो, ऐसा नहीं है।

• चोट या धक्का लगने से स्तन कैंसर नहीं होता। बल्कि कई बार चोट लगने पर इसकी तरफ ध्यान जाता है और इसका पता लगता है।

• कैंसर असाध्य नहीं है और न ही इससे मरना जरूरी है। जल्दी पता लगने और इलाज कराने पर यह ठीक हो सकता है। कैंसर के बाद भी सामान्य जीवन जिया जा सकता है।

• मुझे कैंसर नहीं हो सकता- यह ख्याल छोड़ दीजिए। यह मोटे-पतले, छोटे-बड़े, गोरे-काले, अमीर-गरीब सभी को हो सकता है।

• 20 साल की उम्र से लेकर मृत्यु की चौखट पर खड़ी किसी बूढ़ी महिला तक किसी भी उम्र की महिला को स्तन कैंसर हो सकता है।

• स्तन कैंसर पुरुषों को भी होता है। 200 में से एक स्तन कैंसर का मरीज पुरुष हो सकता है।

• खान-पान और जीवनचर्या में सकारात्मक बदलाव करके कैंसर होने की संभावना को कम किया जा सकता है। लेकिन एक बार कैंसर हो जाने के बाद उसे इस तरह ठीक नहीं किया जा सकता। इसका प्रामाणिक इलाज ऐलोपैथी ही है।

• कैंसर दिनों या महीनों में नहीं होता। आम तौर पर इसकी गांठ बनने और किसी अंग में जम कर बैठने और विकसित होने में बरसों लगते है। जबकि इसका पता हमें बहुत बाद में लगता है।

• ज्यादातर (100 में से 93) मामलों में स्तन कैंसर वंशानुगत यानी खानदानी बीमारी नहीं है। अनेक सहायक कारक मिल कर कैंसर की स्थितियां पैदा करते हैं।

• वैसे तो स्तन की 90 फीसदी गांठें कैंसररहित होती हैं, सिर्फ 10 फीसदी गांठों में कैंसर की संभावना होती है। फिर भी हर गांठ की फौरन जांच करानी चाहिए।

• ज्यादातर मामलों में कैंसर की शुरुआत में दर्द बिल्कुल नहीं होता।

Tuesday, May 6, 2008

शुरुआत से पहले




मैं जैसे एक बहाव के साथ बहती जा रही थी। नहीं जानती थी कि यह कहां ले जाएगा। अचानक आई एक कठोर चट्टान से टकराकर मैने चोट खाई। दर्द से कराह कर मैंने उस चट्टान को बद्दुआएं दीं। तभी मुझे होश आया। सिर उठा कर देखा तो दुनिया नई थी। होश आया तो जाना कि यूं ही बहते हुए खत्म हो जाना तो कोई बात नहीं। बहना ही मेरी नियति तो नहीं। शुक्रिया उस चट्टान का जो जाने कितनी बद्दुआओं का बोझ संभाले जाने कब से उस बहाव के बीच स्थिर खड़ी है। बेहोश और नशे की रौ में दिशाहीन हो बहाव के साथ बहते जा रहे लोगों को जगाती, संभालती और सही राह बताती। आशाओं के इंद्रधनुष दिखाती।

उम्मीदों के इस इंद्रधनुष के पीछे चलते जाना होता है, सभी को। इसके हल्के-गहरे, धुंधले-उजले, छुपते-खिलते रंगों में से कोई अंधियारा रंग किसी वक्त आपको ढक लेता है, तो कोई सलेटी आपके सामने अड़ जाता है बेमानी ज़िद सा। कभी कोई अलमस्त रंग अपनी अलग-अलग छटाओं से आपको सजा देता है तो कोई रूमानी-सा हल्के-से आपका हाथ थामे साथ खड़ा हो जाता है अपनी गर्व भरी धज के साथ। इंद्रधनुष के इन रंगों से बचकर कोई निकल सका है भला?
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