Friday, October 31, 2008

जो पहले ज़ख्म था, नासूर बन गया

इन पृष्ठों पर कैंसर के रिस्क फैक्टर्स यानी कैंसर की संभावना बढ़ाने वाले कारकों के बारे में चर्चा हुई है। लेकिन कैंसर का एक और रिस्क फैक्टर है जिसके बारे में हम लोकोक्तियों/कहावतों में तो कई बार कहते हैं लेकिन उसे भाषा की सुंदरता बढ़ाने वाले अलंकार से ज्यादा नहीं समझते। दिल के किसी पुरानी चोट/दर्द के ठीक होने की सूरत नहीं नज़र आती तो हम अक्सर कहते हैं कि जो पहले ज़ख्म था, अब नासूर बन गया है। नासूर यानी कैंसर। लंबे समय का दिल का जख्म या दुख जब ठीक नहीं होता तो सिर्फ दिल में नहीं शरीर में भी नासूर बना सकता है।

इज़राइल में रिसर्चरों की एक टीम ने 255 स्तन कैंसर की मरीज़ों और 367 स्वस्थ महिलाओं के जीवन में बीमारी शुरू होने के पहले खुशी, आशावादिता, तनाव, अवसाद जैसी स्थितियों के आंकड़े जुटाए। डाक्टरों ने पाया कि जिन महिलाओं के जीवन में एक या एक से ज्यादा बड़े दुख की घटनाएं हुईं उन्हें कैंसर की संभावना ज्यादा थी। जबकि आम तौर पर सामान्य, खुशमिजाज़, आशावादी रहने वाली महिलाओं को स्तन कैंसर कम हुआ।

उनका कहना है कि केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (सेंट्रल नर्वस सिस्टम), हार्मोन और रोग प्रतिरक्षा तंत्र आपस में संबंधित हैं और व्यक्ति का व्यवहार और बाहरी कारक इनकी कार्यक्षमता पर असर डालते हैं।

तो, हम बाकी सकारात्मक कोशिशों के साथ साथ- खुश रहने और कैंसर दूर भगाने के इस मंत्र को भी याद रखें ।

Wednesday, October 29, 2008

गुलाबी रिबन में पुरुष अजीब नहीं लगते

गुलाबी रिबन के बारे में पिछली पोस्ट क्या आपने आज कुछ गुलाबी पहना है? पर एक टिप्पणी थी – ‘गुलाबी रंग में पुरुष - शायद कुछ अजीब लगे।‘ उसके जवाब में अपने ई-मेल बॉक्स पर मिली यह दिलचस्प और सार्थक कहानी आपके साथ बांट रही हूं।

एक अधेड़ उम्र का सुदर्शन पुरुष कैफे में पहुंचा और शांति से कोने की एक टेबल पर बैठ गया। कुछ देर में उसका ध्यान बगल वाली टेबल पर बैठे कुछ नौजवानों की तरफ गया जो उसे ही देख कर हंस रहे थे। फिर अचानक उसे कुछ ख्याल आया और वह समझ गया कि वे क्यों हंस रहे हैं। उसे याद आया कि उसने कोट के कॉलर वह गुलाबी रिबन टांका था, जिसे देख कर वे नौजवान उसका मज़ाक उड़ा रहे थे।

थोड़ी देर तो वह उनकी ठिठोली को नज़रअंदाज़ करता रहा। फिर रिबन पर अंगुली रखी और उनमें से सबसे उच्श्रृंखल लगने वाले लड़के की तरफ देख कर पूछा- “क्या इस पर हंस रहे हो?”

वह लड़का बोला,- “माफ करें, लेकिन नीले कोट पर यह गुलाबी रिबन बिल्कुल नहीं जंच रहा है।“

उस अधेड़ ने उसे इशारे से बुलाया और पास बैठने का न्यौता दिया। नौजवान असहज होकर उसके पास वाली कुर्सी पर बैठ गया। उस अधेड़ ने धीमी आवाज़ में कहा- “मैं स्तन कैंसर के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए, अपनी मां के सम्मान में इसे पहनता हूं।”

“मुझे अफसोस है। क्या स्तन कैंसर ने उनकी जान ले ली थी?”

“नहीं, वह मरी नहीं हैं। लेकिन शैशवकाल में उनके स्तनों से मेरा पोषण हुआ, और लड़कपन में जब भी मैं डर या अकेलापन महसूस करता था तो अपना सिर उन पर रख कर आश्वस्त हो जाता था। मैं उनका शुक्रगुज़ार हूं।”

“अच्छा!।”

“मैं यह रिबन अपनी पत्नी के सम्मान में भी पहनता हूं।”

“उम्मीद है, अब वे भी ठीक हो गई होंगी?”

“हां, उन स्तनों ने 23 साल पहले मेरी प्यारी सी बेटी को पोषित किया, दिलासा दिया। वे हमारे स्नेहिल संबंधों में खुशी का स्रोत रहे हैं। मैं उनका भी आभारी हूं।”

“और आप इसे अपनी बेटी के सम्मान में भी पहनते होंगे?” नौजवान ने उकता कर कहा।

“नहीं। उसके सम्मान में इसे पहनने के लिए बहुत देर हो चुकी है। मेरी बेटी एक माह पहले स्तन कैंसर से मर गई। उसका ख्याल था कि इस कम उम्र में उसे स्तन कैंसर नहीं हो सकता। इसलिए जब एक दिन अचानक उसने गांठ महसूस की तो भी वह चैतन्य नहीं हुई, उसे नज़रअंदाज़ करती रही। उसे लगा कि चूंकि उसे दर्द नहीं होता है, उसलिए चिंता की कोई बात नहीं है।”

इस कहानी से विचलित नौजवान बरबस बोल उठा- “ओह, मुझे बहुत दुख हुआ जानकर।“

अधेड़ बोला- “अब मैं अपनी बेटी की याद में गर्व से यह रिबन लगाता हूं। यह मुझे, दूसरों को इस बारे में सतर्क और जागरूक करने में मदद करता है। अब घर जाकर अपनी पत्नी, मां, बेटी, रिश्तेदारों और मित्रों को इस बारे में बताना।

और यह लो ”- कहते हुए उस अधेड़ ने अपनी कोट की जेब से एक गुलाबी रिबन निकाल कर उसे थमा दिया।

Saturday, October 25, 2008

क्या आपने आज कुछ गुलाबी पहना है?

क्या आपने आज कुछ गुलाबी पहना है? गुलाबी कपड़े, जूते, मोज़े, कड़े, रुमाल, रिबन... कुछ भी। अगर नहीं तो मेरी गुज़ारिश है कि जरूर पहनें। यह स्तन कैंसर का प्रतीक रंग है। आज का दिन गुलाबी पहनने के लिए खास इसलिए है कि, कहते हैं न, जब जागे, तभी सवेरा। जागरूकता के लिए तो कोई भी दिन अच्छा है। आप सोच रहे हैं, कि एक दिन एक खास रंग पहनने से क्या हो जाएगा! तो जनाब, इस लेख को पूरा पढ़ जाइए, आपको जवाब मिल जाएगा।

अक्टूबर का महीना स्तन कैंसर जागरूकता को समर्पित है। अक्टूबर को नैशनल ब्रेस्ट कैंसर अवेयरनेस मंथ के रूप में मनाने की शुरुआत अमरीका में हुई। अब इसे कई देशों ने अपना लिया है।

गुलाबी रंगत में व्हाइट हाउस, अक्टूबर 2008





पिंक रिबन का इतिहास

स्तन कैंसर की मरीज सूज़न जी. कोमेन को मौत के करीब पहुंची हालत में देखकर बहन नैंसी जी. ब्रिकनर ने उससे वादा किया कि वह इस बीमारी के बारे में जागरुकता फैलाने की हर कोशिश करेगी। इसी वादे को निभाने के लिए 1982 में ‘सूज़न जी. कोमेन फॉर क्योर’ नाम की संस्था बनी। इसके जरिए नैंसी ने स्तन कैंसर के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। आज यह स्तन कैंसर के मरीजों, विजेताओं और कार्यकर्ताओं का संभवतः दुनिया का सबसे बड़ा नेटवर्क है।

अक्टूबर 2007- स्तन कैंसर जागरूकता माह, गुलाबी रोशनी में नहाया टोकियो टावर

1991 में इस संस्था ने न्यूयॉर्क में आयोजित कैंसर जागरूकता दौड़ में सहभागियों को प्रतीक के रूप में गुलाबी रिबन बांटे। तब से गुलाबी रिबन दुनिया भर में स्तन कैंसर का प्रतीक चिन्ह बन गया है।




गुलाबी रंगत

सामाजिक संस्थाओं को जोड़ने वाली कड़ी के रूप में गुलाबी रिबन कामयाब रहा है। इसके नाम पर ‘पिंक रिबन इंटरैशनल’ जैसी संस्थाएं और ‘वियर इट पिंक’ और ‘इन द पिंक’ जैसी स्तन कैंसर से जुड़ी परियोजनाएँ खासा बड़ा काम समाज के लिए कर रही हैं। गुलाबी रिबन के अलावा इस रंग के दूसरे उत्पाद भी इस कैंसर जागरूकता माह में खूब बेचे और खरीदे जाते हैं और इससे तथा दान में मिले धन का इस्तेमाल स्तन कैंसर जागरूकता, इलाज और अनुसंधान के लिए किया जाता है।

स्तन कैंसर पर सार्वजनिक आयोजनों के अलावा एक दिन तय किया जाता है जब संस्था से जुड़े सभी लोग और यहां तक कि उसे प्रायोजित करने वाली कंपनियों के कर्मचारी भी गुलाबी पहनते हैं। इसे ‘पिंक डे’ कहा जाता है।

'पिंक फॉर अक्टोबर' पिंक फॉर अक्टोबर का लोगो

एक और अभियान है जिसके तहत स्तन कैंसर जागरूकता अभियान का समर्थन करने वाले सभी वेबसाइट इस महीने अपने पृष्ठों पर गुलाबी रंग बिखेर देते हैं। (आप भी बिखेर सकते हैं)

अक्टूबर 2006 में मैथ्यू ओलीफैंट का मज़ाक-मज़ाक में बनाया गुलाबी रंग से भरा मज़ाहिया वेबसाइट कैसे स्तन कैंसर जागरूकता अभियान के लिए प्रेरणा बन गया, यह कहानी भी दिलचस्प है।

कैंसर की दवाएं बनाने वाली कंपनियों ने भी आदतन इस चिन्ह को व्यावसायिक फायदे के लिए खूब इस्तेमाल किया है। दरअसल शुरू में गुलाबी रिबन को बड़े पैमाने पर प्रायोजित करने वाली संस्था खुद एक रसायन कंपनी थी, जिसके उत्पाद स्तन कैंसर को बढ़ावा देते हैं। इसी तरह की परिघटनाओं के लिए ‘पिंकवाशिंग’ शब्द निकला है। यानी अपने बुरे कर्मों (ज़हरीले रसायनों का उत्पादन) की कालिख को (कैंसर के उपचार, जागरूकता आदि अभियानों के लिए खुले आम धन दे कर) धोने की कोशिश।

इन आलोचनाओं से परे सोचने की बात यह है कि स्तन और दूसरे कैंसरों के बारे में जानने की जरूरत लगातार बढ़ रही है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि देश में आज की तारीख में कोई 20-25 लाख कैंसर के मरीज हैं। हर साल सात लाख से ज्यादा नए मरीज इस लिस्ट में जुड़ रहे हैं और इनमें से तीन लाख हर साल दम तोड़ देते हैं।

स्तन कैंसर की बात करें तो हर साल शहरों में हर 8-10 महिलाओं में से एक को और गांवों में हर 35-40 में एक को स्तन कैंसर होने की संभावना है।


क्या अब तक आप समझ पाए कि मैंने आज के दिन आपसे गुलाबी पहनने की गुज़ारिश क्यों की? जवाब बहुत सरल है। जब आप गुलाबी पहनेंगे तो इस बारे में सोचेंगे भी, क्योंकि आपका गुलाबी पहनना स्वतःस्फूर्त नहीं है, बल्कि ऐसा करने को आपसे कहा गया है। और उसी सोच के दौरान यह भी जानने को उत्सुक होंगे कि आखिर गुलाबी रंग और स्तन कैंसर का क्या रिश्ता है। और इस प्रक्रिया में आप कैंसर के बारे में कुछ नया जानें या नहीं, पर यह आपकी विचार-प्रक्रिया में शामिल जरूर हुआ। है न! बस, इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। स्तन कैंसर के प्रति जागरूकता अभियान में शामिल होने के लिए शुक्रिया।

Wednesday, October 22, 2008

तानाशाह हिटलर के शुक्रगुज़ार हैं कैंसर के मरीज़

जर्मनी के नाज़ी तानाशाह हिटलर की कैंसर के मरीजों को एक बड़ी देन है। हालांकि वे चले थे बुराई करने, अनेकों के साथ बुरा तो हुआ पर कुछेक का भला भी हो गया। नहीं, ज्यादा पहेलियां बुझाने का मेरा कोई इरादा नहीं है, बस एक कहानी सुनानी है। तो, हिटलर ने यहूदियों को मारने के लिए कई तरीके ईजाद किए। सैकड़ों को एक साथ मारने का उसका एक तरीका था- गैस चेंबर। झुंड-के-झुंड यहूदियों को बड़े-से हॉल में बंद कर देना और उसमें जहरीली गैस छोड़ना, जिसे सूंघ कर सबका काम तमाम हो जाए।

कुछेक बार ऐसा हुआ कि गैस-चेंबरों की जहरीली गैस सूंघने के बाद भी कुछ लोग जिंदा रह पाए और जान बचाकर निकल भागे। उन भागने वालों में कुछ कैंसर के मरीज भी थे। देखा गया कि गैस चेंबर से बचे कैंसर के मरीजों की हालत में अचानक चमत्कारी सुधार होने लगा। बाद में पता लगा कि उन जहरीली गैंसों से उनके शरीर की कैंसर कोशिकाएं नष्ट हो गईं। और इस तरह खोज हुई कैंसर को मारने वाले जहरीले रसायनों की। इन मारक रसायनों का इस्तेमाल कैंसर के मरीजों की जान बचाने के लिए होने लगा।


Auschwitz gas chamber









Aftermath



Inside a gas chamber


ये रसायन यानी कीमोथेरेपी की दवाएं जहरीली तो अब भी उतनी ही हैं, लेकिन अब यह भी पता लग गया है कि सबसे अच्छे परिणाम पाने के लिए वे कितनी मात्रा में और कैसे दी जाएं और उनके बुरे असर कम करने के लिए क्या-क्या किया या न किया जाए।

इस तरह की अब तक सैकड़ों दवाएं खोजी जा चुकी हैं। इनमें से कुछ दवाएं दूसरी एक या दो दवाओं के साथ दिए जाने पर कैंसर के खिलाफ ज्यादा कारगर साबित होती हैं। कीमोथेरेपी की इस पद्यति को कॉम्बिनेशन कीमोथेरेपी कहते हैं।

इन दवाओं का चुनाव कैंसर के प्रकार अवस्था और शरीर के अंग के आधार पर (और हां, हिंदुस्तान में खास तौर पर सरकारी अस्पतालों में पहुंचे गरीब मरीजों के लिए उनकी माली हालत के आधार पर!) किया जाता है। इन्हें मरीज के रक्त-संचार तंत्र में डाला जाता है जहां से यह रक्त नलियों के जरिए पूरे शरीर में फैल जाती हैं।

Sunday, October 19, 2008

थुल-थुल मोटापे से तौबा!

जिराफ कभी मोटा नहीं होता।इसीलिए अव्वल तो उसे कैंसर होता नहीं। और खुदा-न-खास्ता कभी हो भी गया तो उसके बचने के चांसेस काफी मोटे होंगे क्योंकि वह खुद मोटा नहीं होता।

मोटे और थुल-थुल शरीर वाले कैंसर मरीजों की ठीक होने की संभावना कम होती है। यह ताजा नतीजा हाल के एक रिसर्च के बाद सामने आया है। लान्सेट ऑन्कोलॉजी पत्रिका में छपे लेख के मुताबिक वैज्ञानिकों ने पाया कि मोटे लेकिन कमज़ोर मांस-पेशियों वाले लोगों में इलाज के लिए दी जाने वाली कीमोथेरेपी का वितरण पूरे शरीर में आसानी से नहीं हो पाता। इस कारण दवाओं का पूरा फायदा शरीर को नहीं मिल पाता।

मोटे लोगों में भी उपापचय की दर, पेशियों और मांस का अनुपात शरीर के गठन के मुताबिक अलग-अलग होता है। इसलिए उनको दी गई समान कीमोथेरेपी का पूरे शरीर में वितरण और असर होने का समय अलग-अलग हो सकता है। इसलिए इलाज के दौरान शरीर की सक्रियता, खान-पान और मोटापे का असर इलाज के कुल फायदे पर भी पड़ता है।

कनाडा में हुए एक क्लीनिकल ट्रायल में कैंसर के कमजोर मांस-पेशियों वाले मोटे मरीजों (सार्कोपीनिक ओबीज़) पर दवाओं के असर और उनकी ठीक होने की संभावना का अध्ययन किया गया। इसमें 250 मोटे मरीजों को शामिल किया गया , जिनमें से 38 फीसदी सार्कोपीनिक ओबीज़ माने गये।

इस अध्ययन के कुछ नतीजे थे-
• सार्कोपीनिक ओबेसिटी वाले मरीज़ों की मृत्यु दर दूसरे ओबीज़ मरीजों के मुकाबले चार गुना ज्यादा थी।

• सार्कोपीनिक ओबीज़ मरीजों की सक्रियता यानी अपना रोज़ का काम करने और अपनी देखभाल कर पाने की क्षमता दूसरे मोटे मरीजों के मुकाबले बहुत कम थी।

• शरीर में कीमोथेरेपी के असमान वितरण के कारण सार्कोपीनिक ओबीज़ में कीमो के साइड इफेक्ट पर भी नकारात्मक असर पड़ा।

वैज्ञानिकों ने निश्कर्ष निकाला कि शरीर की रचना और गठन, खास तौरपर सार्कोपीनिक ओबेसिटी का मरीज़ की उत्तरजीविता, सामान्य जीवन, कीमोथेरेपी के जहरीले बुरे असर आदि से गहरा संबंध है। यह भी पाया गया कि ऐसे मरीजों में समान शारीरिक वजन और ऊंचाई के बावजूद उपयुक्त दवा की मात्रा में तीन-गुने तक का अंतर आ सकता है।

इस ट्रायल पर ज्यादा अध्ययन के बाद हो सकता है भविष्य में सार्कोपीनिक ओबेसिटी से पीड़ित कैंसर मरीजों के लिए दवा की मात्रा तय करते समय इन कारकों को भी गिनती में लिया जाए।

कुल मिला कर सबक यही है कि हर कीमत पर मोटापे से बचा जाए, चाहे हम सार्कोपीनिक ओबीज़ हों या नहीं, चाहे हम कैंसर के मरीज़ हों या नहीं।

Thursday, October 16, 2008

खून की सरल जांच कैंसर होने का पता देगी

खून की जांच कराई और पता लगा लिया कि शरीर के किसी हिस्से में कैंसर की शुरुआत तो नहीं हो रही! आज की तारीख में सभी तरह के कैंसरों के लिए तो नहीं पर कुछेक के लिए यह जांच सुविधा उपलब्ध है। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि जल्दी ही बाकी तरह के कैंसर में भी ऐसी ही सरल जांच से काम बन जाएगा। कैंसर जैसी जटिल बीमारी के बारे में यह सोच पाना कठिन है कि सबसे सरल तरीका सबसे प्रभावी भी हो सकता है। कैंसर की पहचान के लिए ढेरों बड़ी-बड़ी महंगी मशीनें और दुरूह जांच हैं जो कुछेक गिने-चुने शहरों और अस्पतालों में ही उपलब्ध हैं। ऐसे में अमेरिकन सोसाइटी ऑफ क्लीनिकल ऑन्कोलॉजी के शिकागो में हुए हालिया सम्मेलन में रिसर्चरों ने राय जाहिर की है कि कैंसर का पता लगाने का सबसे अच्छा तरीका हैं, खून की कुछेक बूंदें लेकर जांच करना।

खून से कैंसर का हाल जानने की तकनीक नई नहीं है। जिस तरह किसी महिला के खून में मौजूद प्रोटीनों की जांच करके उसके 10 दिन का गर्भ होने का पता भी लगाया जा सकता है, उसी तरह कैंसर की बेहद शुरुआती अवस्था में खून की जांच से ट्यूमर द्वारा छोड़ी गई कोशिकाओं पर मौजूद कुछ खास प्रोटीन की जांच करके उसकी मौजूदगी का पता लगाया जा सकता है। ज्यादातर ट्यूमर पास-पास जुड़ी हुई कई परतों वाली ऐपीथीलियल कोशिकाओं से बने होते हैं। कैंसर कोशिकाओं की खास बात यह है कि वे एक जगह टिकती नहीं है और ट्यूमर से छिटक-छिटक कर तेजी से खून के जरिए दूसरी जगहों पर फैलने की कोशिश करती हैं। एक और दिलचस्प बात यह है कि कैंसर कोशिकाएं अविकसित, अधूरी, कमजोर और तेजी से विभाजित होने और उसी तेजी से मरते जाने वाली कोशिकाएं हैं। ऐसे में किसी जगह ट्यूमर बनने के पहले ही उससे निकल कर खून में आई ये अलग तरह की ऐपीथीलियल कोशिकाएं तुरंत पहचानी जा सकती हैं।

खून की जांच से कैंसर होने का पता देने वाली उसमें घूम रही अविकसित ऐपीथीलियल कोशिकाओं की मौजूदगी का पता लगा लेना काफी नहीं है। वैसे ही जैसे किसी जगह दुश्मन के सैनिकों की मौजूदगी का पता लगाना काफी नहीं। अगर उन्हें पकड़ कर पूछताछ भी की जा सके, उनके इरादों, योजनाओँ का भी खुलासा हो पाए तो बात बने। इसलिए नए तरह के परीक्षणों से वैज्ञानिक अब उन कोशिकाओं पर मौजूद प्रोटीन के प्रकार की पहचान करके यह भी पता लगा पा रहे है कि वह जिस ट्यूमर से निकल रहा है उसकी प्रकृति क्या है। क्या वह तेजी से बढ़ने वाला है, किसी और अंग में फैलने की स्टेज पर है, या धीरे-धीरे बढ़ रहा अपनी ही जगह पर बना हुआ है। इससे डॉक्टरों को हर मरीज की जरूरत के मुताबिक सही समय पर सही इलाज करने में मदद मिलेगी। ऐसी तरकीब इसलिए और भी जरूरी है कि कैंसर के सामान्य इलाज के जहरीले साइड इफेक्ट बहुत ज्यादा और मारक हैं। ऐसे में इलाज जितना सटीक होगा उतना ही कारगर, सस्ता, सुगम और कम साइड इफेक्ट पैदा करने वाला होगा।

ये जानना रोचक है कि अब ट्यूमर से निकली कोशिकाओं के डीएनए, आरएनए और प्रोटीन में मौजूद बदलावों की जांच करके ट्यूमर के भीतर की खबर लेना आसान हो गया है। इन जांचों की सबसे बड़ी खासियत है इनका आसान और सहज होना। आजकल सबसे आम जांच चलन में है फाइन नीडिल एस्पिरेशन साइटोलॉजी तकनीक या एफ एन ए सी। सरल शब्दों में कहें तो ट्यूमर की जगह से कुछ कोशिकाएँ सुई के जरिए खींच कर निकालना और फिर माइक्रोस्कोप के नीचे उनकी पड़ताल करके उनके आकार-प्रकार, रचना, संख्या आदि का पता लगाना। लेकिन यह जांच तभी की जा सकती है जबकि पहले ही कैंसर का अंदेशा हो, ट्यूमर की जगह का पता हो, वह कम-से-कम इतना बड़ा हो कि उसमें से कोशिकाएं सुई के जरिए निकाली जा सकें और सुई उस तक पहुंच सके। इस प्रक्रिया में एक खतरा कैंसर कोशिकाओं के जल्द फैलने का भी है। ट्यूमर के भीतर तक पहुंची सुई के सहारे कैंसर कोशिकाएं अब तक अनछुई परतों तक पहुंच कर आदतन वहां भी पैर जमाना शुरू कर सकती हैं। लेकिन रक्त निकालकर जांच करने में इस बात का कोई खतरा नहीं होता।

खून की जांच पर आधारित इन निदान तकनीकों से कैंसर की पहचान में कोई बड़ा बदलाव आ गया हो, ऐसा समझना अभी जल्दबाजी होगी। लेकिन डॉक्टरों को इनसे बहुत उम्मीदें हैं। कैंसर के बारे में बुनियादी बात यही है कि इसकी पहचान जितनी जल्दी होती है, इसका इलाज उतना ही सरल, कम खर्चीला और सफल होता है और इसके दोबारा होने की संभावना उतनी ही कम होती है। इसलिए इन तकनीकों के ज्यादा सटीक और भरोसेमंद बनाने की कोशिशें जारी हैं।

Saturday, October 4, 2008

धूम्रपान पर कड़ी पाबंदी

दो अक्टूबर से सभी सार्वजनिक जगहों पर धूम्रपान पर पाबंदी लग गई है। इसे न मानने पर सज़ा का भी प्रावधान है। यह सभी की सेहत के लिए अच्छा है। खास बात यह है कि कई सर्वेक्षणों में लोगों ने समान रूप से इस पाबंदी का समर्थन किया है।
इस मसले पर घोस्ट बस्टर ने अपने ब्लॉग पर एक शानदार पोस्ट डाली है। उसके सुंदर चित्र, प्रवाहमय भाषा, खूबसूरत अभिव्यक्ति और रिच कंटेंट पढ़ कर मैं आपको भी उससे परिचित करवाने के लालच से बच नहीं पाई।

वे लिखते हैं- "आम जनता की और से सरकार के इस कदम का जबरदस्त स्वागत हुआ है. मुंबई, दिल्ली, चेन्नई और कोलकाता में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार ९२% लोगों ने धूम्रपान निषेध के लिए कड़े क़दमों का स्वागत किया है

फ़िर भी इस बात को लेकर एक बड़ी बहस छिडी हुई है. बैन के पक्षधर और विरोधी तमाम तरह के तर्क दे देकर मैसेज बॉक्स और फोरम्स के पन्नों पर पन्ने रंगे जा रहे हैं. अपन तो बस इस बैन को जल्द से जल्द और सख्ती से लागू किए जाते देखना चाहते हैं. एक कम्युनिटी के रूप में स्मोकर्स के लिए अपने मन में जरा भी इज्जत नहीं. क्योंकि,

१. ये जानते हैं कि धूम्रपान इनके स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक है. मगर इन्हें परवाह नहीं.
२. इन्हें पता है कि ये इनके घर के अन्य सदस्यों, जो स्मोक नहीं भी करते, के लिए भी बुरा है, मगर ये आदत से मजबूर हैं.
३. स्मोकिंग से होने वाली विषैली गैसों का उत्पादन पूरे विश्व के पर्यावरण के लिए नुक्सान ही पहुँचाने वाला है, होता रहे इनकी बला से.
४. सार्वजनिक स्थानों पर किसी स्मोकर को धुंआ उडाते देखने का दृश्य अभद्रता का खुला प्रदर्शन लगता है...."

पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

Friday, October 3, 2008

चहुंओर रंग बिखेरता इंद्रधनुष

पिछले दिनों वेबदुनिया में अपने इस ब्लॊग पर एक लेख आया तो मैं बहुत उत्साहित हो गई। उसी उत्साह के नतीजे में नेट पर और जगहों पर तलाश की तो पता चला हम कई और जगहों पर भी समीक्षित हैं। तो उनमें से कुछ के बारे में लिंक सहित नीचे दे रही हूं।

THATS HINDIरविवार, मई 11, 2008

कैंसर को समर्पित ब्लॉग 'इंद्रधनुष'
रविवार, मई 11, 2008

नई दिल्ली, 11 मई (आईएएनएस)। हिंदी ब्लॉग की दुनिया में साहित्य, सिनेमा, राजनीति, संगीत आदि पर तो कई ब्लॉग मौजूद हैं और सक्रिय रूप से काम भी कर रहे हैं, लेकिन स्वास्थ्य संबंधी जानकारियों को समेटे ब्लॉग की संख्या काफी कम है। हाल ही में हिंदी ब्लॉग जगत में कैंसर के बारे में जागरूकता फैलाने के उदेश्य से 'इंद्रधनुष' नामक ब्लॉग का प्रवेश हुआ है।
नई दिल्ली, 11 मई (आईएएनएस)। हिंदी ब्लॉग की दुनिया में साहित्य, सिनेमा, राजनीति, संगीत आदि पर तो कई ब्लॉग मौजूद हैं और सक्रिय रूप से काम भी कर रहे हैं, लेकिन स्वास्थ्य संबंधी जानकारियों को समेटे ब्लॉग की संख्या काफी कम है। हाल ही में हिंदी ब्लॉग जगत में कैंसर के बारे में जागरूकता फैलाने के उदेश्य से 'इंद्रधनुष' नामक ब्लॉग का प्रवेश हुआ है।
यह ब्लॉग कई मायनों में अन्य ब्लॉगों से अलग है। कैंसर से जुड़ी जानकारियों से लेकर इससे जुड़ी गलत अवधारणाओं के बारे में भी यहां जानकारियां दी जा रही हैं। जहां ब्लॉग का नाम 'इंद्रधनुष' रखा गया है, वहीं इसका परिचय इस प्रकार दिया गया है- "यह ब्लॉग उन सबका है जिनकी जिंदगियों या दिलों के किसी न किसी कोने को कैंसर ने छुआ है।"...

हिंदी मीडिया.इन

कैंसर ने जीने की राह दिखाई



ब्लॉग समीक्षा | रंजना भाटिया | Monday, 21 July 2008

आज हिन्दी ब्लॉग समीक्षा की श्रृंखला में प्रस्तुत है इंद्रधनुष , इस ब्लॉग की लेखिका है आर अनुराधा, जिन्होंने कैंसर जैसी बीमारी पर जीत हासिल की है।

आज जितना हवा में प्रदूषण फ़ैल रहा है, उतनी ही तेजी से बीमारी फ़ैल रही है| कैंसर का इलाज यदि वक्त रहते हो जाए तो यह अच्छा है | बहुत अच्छी बात जो इस ब्लॉग को पढने में आती है वह है इसकी सकरात्मक सोच | जब कोई व्यक्ति जिंदगी से हार रहा हो उस वक्त यदि इस तरह की सोच उस व्यक्ति के दिल में कुछ पढ़ कर सुन कर पैदा हो जाए तो सब लिखना सार्थक हो जाता है | इस ब्लॉग में लिखे कुछ वाक्य तो जिंदगी के प्रति नजरिया ही बदल देते हैं और दिल में जीने का उत्साह भर देते हैं | नई दवाओं और इलाज के तरीकों ने सारे माहौल और लोगों के सोचने का ढंग ही बदल दिया है। अस्पतालों में ऐसे कई कैंसर के मरीज आपको मिल जाएंगे जो पिछले 24-25 साल से तमाम आशंकाओं को नकारते हुए अपना सफर ज़िंदादिली के साथ तय कर रहे हैं। काफी संभव है कि जब मृत्यु आए तो उसकी वजह कैंसर न हो। ...

रिजेक्ट माल
जो कहीं नहीं छ्पा वो यहाँ छपेगा ... सूचना और रचना के लोकतंत्र में आप सबका स्वागत है। अपना रिजेक्ट माल या ऐसा माल जो आपको लगता है कि रिजेक्ट हो जाएगा, उसे rejectmaal@gmail.com पर भेजें

Tuesday, July 8, 2008
मुमकिन है कैंसर के साथ जीना ! कैंसर का खौफ अब पहले से कम हो रहा है। कैंसर के बावजूद अब कई लोग उसी तरह लंबी जिंदगी जी रहे हैं जैसे कि हार्ट की बीमारी या डायबिटीज के मरीज जीते हैं। बीमारी का इलाज न हो तो भी उसका मैनेजमेंट कई बार मुमकिन हो पाता है। कैंसर का मतलब जीवन का अंत नहीं है, इस बात को रेखांकित करता एक लेख आज नवभारत टाइम्स के संपादकीय पन्ने पर मुख्य लेख के रूप में छपा है। ये लेख आर अनुराधा ने लिखा है, जिनकी राजकमल-राधाकृष्ण से छपी किताब इंद्रधनुष के पीछे -पीछे, एक कैंसर विजेता की डायरी बेस्टसेलर रही है। अनुराधा के ब्लॉग का नाम है इंद्रधनुष। ...


ताक-झांक
ने भी मेरा एक लेख 'नारी' ब्लॊग से लिया है।

जोश18सितम्बर 2008


">जीवन शैली » वाह जिंदगी!
एक ब्लॉग, कैंसर के नाम!
12 मई 2008
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस

नई दिल्ली। हिंदी ब्लॉग की दुनिया में साहित्य, सिनेमा, राजनीति, संगीत आदि पर तो कई ब्लॉग मौजूद हैं और सक्रिय रूप से काम भी कर रहे हैं, लेकिन स्वास्थ्य संबंधी जानकारियों को समेटे ब्लॉग की संख्या काफी कम है। हाल ही में हिंदी ब्लॉग जगत में कैंसर के बारे में जागरूकता फैलाने के उदेश्य से ‘इंद्रधनुष’ नामक ब्लॉग का प्रवेश हुआ है।....


अनुभव
मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ।
May 12, 2008
कैंसर को समर्पित ब्लॉग 'इंद्रधनुष'
POSTED BY गिरीन्द्र नाथ झा AT MONDAY, MAY 12, 2008
LABELS: ब्लॉग की बातें
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