Wednesday, January 28, 2009

जिंदगी है यूं-यूं... रानी की कहानी (भाग-2)

ऐसा क्यों हुआ? (रानी की कहानी भाग-1)

अब हम सब दुखी हैं। कारण है रानी की तबीयत, जो दिन पर दिन बदतर होती जा रही है और डॉक्टरों ने जवाब तो नहीं दिया है, पर यह साफ है कि वो लाजवाब हैं। उसकी रीढ़ इतनी भुरभुरी हो चुकी है कि किसी भी समय, चलते-फिरते, हिलते-डुलते चूर-चूर होकर रीढ़ के भीतर की नर्व में चुभ जाएगी और तब उसके शरीर का कोई हिस्सा संवेदनहीन, लकवाग्रस्त हो जाएगा। अब वह बहुत ही धीरे-धीरे चलती-फिरती है। कमरे से बाथरूम तक जाना उसकी सबसे बड़ी वॉक है। अस्पताल तक लेजाने में डर लगा रहता है कि कोई झटका न लग जाए। पीठ को हमेशा सीधा रखना जरूरी है। खाने-पीने की जरूरत तो है पर भूख मर गई है।

सब उसकी देखभाल तो कर रहे हैं, लेकिन कोई उससे ज्यादा नहीं कर पा रहा है, डॉक्टर भी नहीं। इस स्टेज पर कैंसर ही विजेता होता है, हम उसके हाथ की कठपुतली। जब तक चलाएगा, चलेंगे, फिर...।

जब इस बीमारी यानी स्तन कैंसर के साथ रानी पहली बार रिपोर्ट आदि लेकर अस्पताल गई थी तो मैं भी उसके साथ थी, एक अनुभवी कैंसर रोगी (वैसे, दोबारा इलाज के बाद अभी तक ठीक हूं) के तौर पर। रिपोर्टों के आदार पर उसे चौथे स्टेज का कैंसर बताया गया जो स्तन के अलावा दूसरे हिस्सों, जैसे रीढ़ और कूल्हे की हड्डियों में भी पैल गया था। उस समय मुझे महसूस हुआ था कि डॉक्टर रिपोर्ट देखने के बाद उसे ज्यादा तवज्जो नहीं दे रहे हैं, जो एक सामान्य मरीज को मिलनी चाहिए। उसके बाद पहले कीमोथेरेपी का सुझाव दिया गया। कीमो के बाद कोई इलाज किए बिना उसे सिर्फ जांचें कराते रहने को कहा गया। मुझे ताज्जुब हो रहा था कि उसका ऑपरेशन तक डॉक्टरों की योजना में नहीं था। बाद में मेरे उकसाने पर कोई छह महीने बाद रानी ने आगे इलाज के सवाल उठाए तो डॉक्टरों ने थोड़े आपसी विमर्श के बाद सर्जरी और रेडियोथेरेपी की तारीखें दीं।

उस समय डॉक्टरों के रवैये के बारे में जो महसूस किया था, वह सही था, यह हाल ही में एक लेख पढ़ कर समझ में आया। इंग्लैंड में बढ़ी अवस्था के कैंसर मरीजों के बीच हुए एक सर्वे में करीब आधे मरीजों ने बताया कि नामी विशेषज्ञों तक उनकी पहुंच नहीं थी या सहज नहीं थी। जबकि शुरुआती स्टेजों के मरीजों में से 98 फीसदी को यह सुविधा मिली। गंभीर मरीजों का कहना था कि उन्हें “अकेला छोड़ दिया गया”। उस हालत में इलाज कराने (या न कराने), इलाज के चुनाव, और जीवन के अंत को स्वीकारने जैसे फैसलों में विशेषज्ञ सलाहकारों का पूरा सहयोग नहीं मिला। जबकि सभी को जब जरूरत हो फौरन, और जब तक जरूरत हो, मॉरल सपोर्ट और देखभाल, सार-संभाल मिलनी चाहिए।

हमारे देश की बात करें तो ज्यादातर लोगों के पहुंच के भीतर सरकार अस्पताल ही हैं। इनमें अव्वल तो मेडीकल नर्सिंग ड्यूटी में मॉरल सपोर्ट की ड्यूटी शामिल ही नहीं होती। (कागजों पर हो तो पता नहीं।)। और अगर कोई नर्स या डॉक्टर मरीज को थोड़ा समय देना भी चाहे तो उसे ओपीडी के चार घंटों में करीब सौ मरीज देखने होते हैं। यानी लगातार काम करे तो हर घंटे 25 मरीज यानी हर मरीज के हिस्से कोई दो मिनट। इन दो मिनटों में वह मरीज की जांच करे, उसकी सुने, अपनी कहे, उसके साथ आए अटेंडेंट को समझे या पर्चा लिखे और उसको समझाए!

ऐसे में जाहिर है, जिंदगी बचाने जैसे सबसे गंभीर मसले पर ही ध्यान दिया जा सकता है। बाकी मसले प्राथमिकता सूची में नीचे आ जाते हैं, जिन तक मामला अक्सर पहुंच ही नहीं पाता।

लेकिन, अगर इन पर ध्यान देना नहीं हो पाता इसका मतलब यह कतई नहीं कि ये मसले हैं ही नहीं। कैंसर से हारते लोगों के लिए शारीरिक तौर पर सबसे जरूरी होता है- दर्द का निवारण और अपनी दैनिक जरूरतों की पूर्ति। और मानसिक रूप से सबसे जरूरी होता है उन्हें अपने होने की सार्थकता का एहसास दिलाते रहना।

अमरीका के एक सर्वेक्षण में पता चला कि ज्यादातर मरीज आखिरी समय में अपने घर-परिवार के बीच रहना चाहते हैं। लेकिन उनकी यह इच्छा कई बार मजबूरी बन जाती है जब परिवार उन्हें बोझ और बेकार समझने लग जाता है। रिश्तेदार सोचते हैं कि अब इनकी सेवा करके कितने दिन जिलाए रखा जाए। ऐसे माहौल में मरीज अस्पताल में ही भर्ती रहना ज्यादा पसंद करते हैं, जहां उन्हें भरोसा होता है कि डॉक्टर और नर्सें कम से कम उन्हें जरूरत के समय फौरन मदद तो करेंगे। किसी भी वक्त मर जाने का विचार उनकी चिंता का और तनाव को खत्म नहीं होने देता।

बीसवीं सदी के मुकाबले अब कैंसर के मरीजों के जिंदा रहने और बेहतर, ज्यादा सामान्य जीवन जीने की संभावना कई गुना बढ़ गई है। चिकित्सा-जगत ने इतनी तरक्की कर ली है कि बढ़े हुए कैंसर के साथ भी कई लोग कई महीनों और वर्षों तक जीवित रहते हैं। ऐसे में उनके लिए पैलिएटिव केयर यानी उनका जीवन सुखमय बनाने और सेहत को जहां तक हो सके संभाले रखने का महत्व बढ़ गया है। ऐसे में पैरामेडिकल क्षेत्र के लोगों को इस विषय पर और ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।

Saturday, January 24, 2009

ऐसा क्यों हुआ?

मेरी एक मित्र, नहीं, बल्कि दफ्तर में सहकर्मी- नाम से क्या फर्क पड़ता है, सुविधा के लिए रानी कह लेते हैं- के करीबी सहयोगी ने कोई ढाई साल पहले मुझे एक दिन बताया कि रानी को मेरी सलाह की जरूरत है, मुझे उससे बात करनी चाहिए। मैं उससे मिली तो पता चला कि उसे भी स्तन कैंसर की आशंका में अस्पताल में कई टेस्ट करवाए गए हैं और रिपोर्ट ले-जाकर डॉक्टर को दिखाने में वह घबरा रही है। साथ ही वह उन रिपोर्ट्स की तफसील जानना चाहती थी।

मैंने रिपोर्ट्स पढ़ कर सुनाई, और जितना समझ में आया, उनका अर्थ भी बताया। संक्षेप में- उसे स्तन का कैंसर है जो कई अंगों में छुट-पुट फैल चुका है। मुझसे काफी देर तक वह बात करती रही। उसने अपनी इस और इससे पहले भी किसी आमो-खास तकलीफ की चर्चा किसी से नहीं की थी। वह है ह हिम्मती। यह उसका आत्मविश्वास था, जिसकी सभी तारीफ करते हैं। उस समय भी वह आत्मविश्वास से भरी थी और अपनी सेहत को लेकर उसे विश्वास था कि कुछ समय की बात है, वह फिर से स्वस्थ हो जाएगी।

आत्मविशवास अच्छा है, लेकिन अज्ञानी का आत्मविश्वास खतरा सामने देखकर आंखें बंद कर लेने जितना ही खतरनाक है, दुस्साहसिक है। मैं उसके साथ अस्पताल गई। डॉक्टर ने चौथी अवस्था का कैंसर बताया। इलाज के लिए कीमोथेरेपी का सुझाव दिया और कहा कि उसके नतीजे देखने के बाद आगे के इलाज की योजना बनाई जाएगी।

उसे सामान्य, छह साइकिल कीमोथेरेपी दी गई। उसके बाद डॉक्टरों का कहना था कि कैंसर अब भी काफी फैला हुआ है, इसलिए सर्जरी की सफलता पर संदेह है। फिर भी उसकी सर्जरी और रेडियोथेरेपी भी हुई, जो थोड़े विकसित स्तन कैंसर के पूरे इलाज का सामान्य हिस्सा है। फिर उसे पहले एक महीने और फिर हर तीन महीने में फॉलो-अप के लिए आने को कहा गया।

मेरा उस दफ्तर से तबादला हो गया। बीच-बीच में जब भी फोन पर रानी से या अपने किसी और पुराने सहयोगी से बातचीत होती तो यही समाचार मिलता कि वह ठीक है। मैं हमेशा संतोष महसूस करती कि इतने बुरे हालात के बाद भी इलाज से उसकी तबीयत काफी संभल गई है। मैं यह मान कर चल रही थी कि वह नियम से फॉलो-अप में जा रही है। न मानने का कारण ही नहीं था। इतना पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपनी सेहत के प्रति इतनी गंभीर लापरवाही बरतेगा!

मगर मामला कुछ और था। इलाज ‘खत्म होने’ का अर्थ उसे यही समझ में आया कि वह ठीक हो गई है। इसलिए जब कोई आठ महीने बाद उसकी कमर और रीढ़ के निचले हिस्से में बर्दाश्त से बाहर दर्द होने लगा तब वह अस्पताल पहुंची। वहां, स्वाभाविक था, डॉक्टरों ने उसे डांट पिलाई और ढेर सारी जांचें फिर करवाने को कहीं। और तब पता चला कि कैंसर उसे भीतर तक खा चुका है, रीढ़ और कूल्हे की हड्डियों को सबसे ज्यादा।

इस समय उसकी हालत जानकर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा है। उसका आत्मविश्वास भी कैंसर को काबू करने में नाकाम रहा। अब हम सब दौड़-भाग कर रहे हैं। सरकारी अस्पताल की अनंत भीड़ में उसकी जांचें, इलाज- यानी पहले रीढ़ और कूल्हे की हड्डियों के लिए पैलिएटिव रेडियोथेरेपी और फिर हल्की कीमोथेरेपी और दूसरी दवाइयां आदि जल्द-से-जल्द करवाने के लिए संबंधित लोगों और विभागों में याचना से लेकर उसके बैंक खाते, तनख्वाह, ग्रैच्युटी आदि में किसी को नामांकित करवाने तक। मैं शायद जिक्र करना भूल गई, उसने शादी नहीं की है और अपने खातों में किसी को नामांकित तक नहीं किया है, जो उसके जाने के बाद (भगवान न करे) उसके पैसे पा सके।

मुझे गुस्सा आ रहा है उसके आत्मविश्वास पर। बल्कि मुझे तो लग रहा है कि वह उसकी मूर्खता थी। क्या कोई इंसान अपनी सेहत की तरफ से इतना लापरवाह हो सकता है? शुरू में जब उसे अपने स्तन में गांठ का पता चला तो वह उसे लेकर निश्चिंत बैठी रही, जब तक वह न भरने वाला घाव बदबूदार और दर्दनाक न हो गया। इतना कि उसके काफी करीब जाने पर दूसरों को भी गंध महसूस होने लगी।

माना, उसमें सहनशीलता है, पर ऐसी सहनशीलता! दूर से ही सलाम।

उसके बाद? सारा महंगा और लंबा और तकलीफदेह इलाज करवाने के बाद वह फिर वही अज्ञानी-आत्मविश्वासी रानी बन गई।

नतीजा? आठ महीने की निश्चिंत जिंदगी बिताकर फिर उस दलदल में कूद पड़ी है रानी, जिसे वह अपने और अपने चाहनेवालों के लिए समतल सड़क न सही, पर चलने लायक तो बनाए रख सकती थी।

सच है, जिस स्टेज में वह पहली बार अस्पताल गई थी, उसके बाद यह स्थिति तो आनी ही थी, पर इतनी जल्दी और इतनी दर्दनाक! किसी ने नहीं सोचा था।
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